सर्पों की यह मांग सुनकर गरूड़ जी अपनी माता के पास आये और उन्होंने उनसे कहा.…
माता ! मैं अमृत लाने जा रहा हूँ। आप मुझे ये बताइये की मैं रास्ते में क्या खाऊंगा!!! …"
तब उनकी माता विनीता ने गरुड़ से कहा.…
"समुद्रों में निषादो* की एक बस्ती है. तुम उन निषादों को खा कर अपना पेट भर लेना, मगर एक बात का ध्यान रखना कि कभी गलती से भी किसी ब्राह्मण को मत खा लेना। वो सभी के लिए अवध्य हैं।।।। …"
माता की आज्ञा के अनुसार, उन्होंने निषादों की उस बस्ती में जाकर, निषादों को खाया मगर इससे उनकी भूख नहीं मिटी * और उधर गलती से उनके मुँह में एक ब्राह्मण भी आ गया था...
हालाँकि उन्होंने तुरंत उस ब्राह्मण को अपने मुँह से निकाल दिया, पर फिर भी इस कारण उनका तालु जलने लगा, अतः वो अपने पिता कश्यप ऋषि के पास आ गए.
कश्यप ऋषि गरुड़ जी को देख कर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे पुछा ....
"तुमलोग ठीक से तो हो ना!! भोजन वोजन तो ठीक से हो जाता हैं ना!!!"
गरुड़ जी ने कहा
"मेरी माता सकुशल है, और मैं भी खुँश हूँ, मगर इच्छानुशार भोजन न मिलने की तकलीफ है, मैं अभी अपनी माता को सर्पों के दासत्व से छुड़ाने के लिए अमृत लाने जा रहा हूँ,…
मैंने माता से पुछा था कि रास्ते में क्या खाऊं*, तो उन्होंने कहा था कि समुद्र में निषादों की एक बस्ती है, तुम वहां के निषादों को खा कर अपना पेट भर लेना…
मैंने उन सारे निषादों को खा लिया है, मगर मेरी भूख अभी भी शान्त नहीं हुई है, अब आप मुझे कुछ बताइये जो खा के मैं अमृत ला सकूँ !! *
तब कश्यप जी ने उनसे कहा
यहाँ से थोड़ी दूर पर एक सरोवर है, वहां पर एक कछुआ और हाथी* रहते हैं, तुम उन्हें खा कर अपनी भूख मिटा लो.… दरअसल ये कछुआ और हाथी पिछले जन्म में भाई थे, परन्तु एक दूसरे के शत्रु हैं...
पिछले जनम में उन्होंने सम्पति को लेकर हुए आपसी झगडे में ईर्ष्या और क्रोधवश एक दूसरों को श्राप दे दिया था कि "तुम कछुआ हो जाओ" और "तुम हाथी हो जाओ"
और इस तरह उन्होंने अब कछुए और हाथी की योनि में जन्म लिया हैं, और आज भी आपस में लड़तें रहतें हैं
हाथी छह योजन ऊंचा और बारह योजन लम्बा है और कछुआ तीन योजन लम्बा और दस योजन गोल है, ये बड़े हिंसक तरीके से एक दुसरे से लड़तें रहतें हैं……* तुम उन्हें खा कर अपनी भूख मिटा लो!!!
पिता के निर्देशानुषार गरुड़ जी उस सरोवर में पहुंचे और एक पंजे में कछुए और दुसरे में हाथी को पकडे उड़ चले.…
चलकर वो अलम्ब तीर्थ आ पहुंचे ।
वहां जब वो सुवर्ण पर्वत पर उतरने लगे, तो वहां के देववृक्ष जो पहले लहलहा रहे थे, उन्हें अपने उपर उतरते देख वो भय से कांपने लगे, यह देख गरुड़ जी दूसरी तरफ जाने लगे तो एक विशाल वट वृक्ष ने उनका स्वागत करते हुए कहा
"आप मेरे सौ योजन लम्बी शाखा में बैठ कर, आराम से इस कछुए और हाथी को खाइये …!!!! "
गरूड़ जी उस शाखा पे बैठ गए पर जैसे हीं वो शाखा पे बैठे वो शाखा चरमरा कर टूट पडी.…
हालांकि गिरते-गिरते गरुड़ जी ने शाखा को पकड़ लिया,पर क्या देखतें हैं कि उसी शाखा के एक डाल पे वालखिल्य नामक ऋषिगण पावों के बल लटक कर साधना कर रहें हैं!!
गरुड़ जी को लगा अगर डाल गिर गयी तो ऋषिगण मर जाएंगे और इसी करुणा में कि कहीं डाल के गिरने से ऋषिगण मर ना जाएँ, उन्होंने उस शाखा को अपने चोंच में पकडे रखा और हवा में हीं विचरते हुए उतरने का कोई उचित स्थान ढूंढने लगे.…
पर वो जहाँ से भी गुजरते उनके वेग और बल से वहाँ आँधिया चलने लगती और आखिरकार उतरने का कोई स्थान ना पाकर, वो वापस गन्धमादन पर्वत में कश्यप जी के पास हीं पंहुचे।
कश्यप जी जब देखा कि गरूड़ चोंच में एक डाल उठायें हुए हैं, जिसमे वालखिल्य ऋषिगण लटक कर साधना कर रहें हैं, तो उन्होंने गरुड़ जी को सावधान किया और कहा....
"देखों साहस में कुछ ऐसा मत कर बैठना जिससे इन ऋषिगणों की साधना भंग हो जाए, और सूर्य की किरण पी कर तपस्या करने वाले ये वालखिल्य ऋषिगण कहीं क्रोधित हो कर तुम्हे कोई श्राप ना दे बैठे!!!! "
फिर उन्होंने खुद हीं वालखिल्य ऋषिगणों से प्रार्थना की.…
"हे ऋषिगण!! गरुड़ प्रजा के हित के लिए एक महान काम करने जा रहें हैं इसलिए आप लोग इन्हें जाने दें …!!"
वालखिल्य ऋषिगणों ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उन्होंने वो डाल छोड़ दी और तपस्या करने के लिए वो वहां से हिमालय पर्वत की तरफ चले गये...
फिर गरूड़ जी ने वो शाखा फेंक दी और पर्वत की चोंटी पे बैठ कर उन्होंने उस कछुए और हाथी को खाया और फिर से वो अमृत लाने के लिए उड़ चले ।।।
तब गरुड़ के नज़दीक आने से हो रहे भयंकर उत्पातों को देख देवराज इंद्र, अपने गुरु बृहस्पति जी के पास पहुंचे और उनसे पुछा....
"भगवन! ऐसा तो कोई शत्रु प्रतीत नहीं होता जो मुझे युद्ध में जीत ले, फिर अचानक से ये उत्पात क्यों हो रहे हैं!!!! "
बृहस्पति जी ने कहा
"देवराज! तुम्हारे अपराध और प्रमाद के कारण तथा वालखिल्य ऋषिजनो के तपोबल से सज्जित होकर विनीतानन्दन गरुड़ अमृत लेने के लये यहीं आ रहा है, और लगता है उसके वेग, बल और तेज के आगे कोई ठहर भी नहीं पायेगा और लगता है वो यहाँ से अमृत लेकर हीं जायेगा. …"
ये सुनकर इंद्र ने अमृत के रक्षकों को सतर्क कर दिया.…
"परम पराक्रमी पक्षिराज गरुड़ अमृत लेने के लिए इधर हीं आ रहें हैं, आप सतर्क रहें ताकि वो बल पूर्वक यहाँ से अमृत न ले जा पाएं !!.... "
स्वयं इंद्र भी अमृत को घेर कर उसकी रक्षा में खड़े हो गएँ।
लेकिन गरुड़ ने वहां पंहुचते हीं अपने पंजो से इतनी धुल उड़ाई की देवताओं को कुछ भी दिखना बंद हो गया. उसके बाद उन्होंने अपने डैनों , चोंचों और पंजो से उन्हें मार मार कर घायल कर दिया. इंद्र ने वायु से कहा
"वायुदेव! ! तुम यह धूल का पर्दा फाड़ दो! यह तुम्हारा कर्तव्य है.. "
वायु देवता ने वैसा हीं किया.…चारो और साफ़ साफ़ दिखने लगा और देवताओं ने भी गरूड़ के ऊपर प्रहार किया, पर उनके अश्त्र-शस्त्रों के प्रहार से गरुड़ थोड़े भी विचलित नहीं हुए.…
और कुछ हीं देर में सारे देवतागण बुरी तरह से लहू- लुहान हो कर तीतर-बितर हो गए.…
अब गरुड़ आगे बढ़े तो देखते है कि अमृत के चारो तरफ ज्वाला धधक रही है, उन्होंने आठ हज़ार एक सौ मुँह बनाये और उनमे बहुत सारी नदियों का जल भरा और उसे उस ज्वाला में उड़ेल दिया....और अग्नि के शांत होने पर उन्होंने छोटा सा शरीर धारण किया
और आगे बढ़े ....
माता ! मैं अमृत लाने जा रहा हूँ। आप मुझे ये बताइये की मैं रास्ते में क्या खाऊंगा!!! …"
तब उनकी माता विनीता ने गरुड़ से कहा.…
"समुद्रों में निषादो* की एक बस्ती है. तुम उन निषादों को खा कर अपना पेट भर लेना, मगर एक बात का ध्यान रखना कि कभी गलती से भी किसी ब्राह्मण को मत खा लेना। वो सभी के लिए अवध्य हैं।।।। …"
माता की आज्ञा के अनुसार, उन्होंने निषादों की उस बस्ती में जाकर, निषादों को खाया मगर इससे उनकी भूख नहीं मिटी * और उधर गलती से उनके मुँह में एक ब्राह्मण भी आ गया था...
हालाँकि उन्होंने तुरंत उस ब्राह्मण को अपने मुँह से निकाल दिया, पर फिर भी इस कारण उनका तालु जलने लगा, अतः वो अपने पिता कश्यप ऋषि के पास आ गए.
कश्यप ऋषि गरुड़ जी को देख कर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे पुछा ....
"तुमलोग ठीक से तो हो ना!! भोजन वोजन तो ठीक से हो जाता हैं ना!!!"
गरुड़ जी ने कहा
"मेरी माता सकुशल है, और मैं भी खुँश हूँ, मगर इच्छानुशार भोजन न मिलने की तकलीफ है, मैं अभी अपनी माता को सर्पों के दासत्व से छुड़ाने के लिए अमृत लाने जा रहा हूँ,…
मैंने माता से पुछा था कि रास्ते में क्या खाऊं*, तो उन्होंने कहा था कि समुद्र में निषादों की एक बस्ती है, तुम वहां के निषादों को खा कर अपना पेट भर लेना…
मैंने उन सारे निषादों को खा लिया है, मगर मेरी भूख अभी भी शान्त नहीं हुई है, अब आप मुझे कुछ बताइये जो खा के मैं अमृत ला सकूँ !! *
तब कश्यप जी ने उनसे कहा
यहाँ से थोड़ी दूर पर एक सरोवर है, वहां पर एक कछुआ और हाथी* रहते हैं, तुम उन्हें खा कर अपनी भूख मिटा लो.… दरअसल ये कछुआ और हाथी पिछले जन्म में भाई थे, परन्तु एक दूसरे के शत्रु हैं...
पिछले जनम में उन्होंने सम्पति को लेकर हुए आपसी झगडे में ईर्ष्या और क्रोधवश एक दूसरों को श्राप दे दिया था कि "तुम कछुआ हो जाओ" और "तुम हाथी हो जाओ"
और इस तरह उन्होंने अब कछुए और हाथी की योनि में जन्म लिया हैं, और आज भी आपस में लड़तें रहतें हैं
हाथी छह योजन ऊंचा और बारह योजन लम्बा है और कछुआ तीन योजन लम्बा और दस योजन गोल है, ये बड़े हिंसक तरीके से एक दुसरे से लड़तें रहतें हैं……* तुम उन्हें खा कर अपनी भूख मिटा लो!!!
पिता के निर्देशानुषार गरुड़ जी उस सरोवर में पहुंचे और एक पंजे में कछुए और दुसरे में हाथी को पकडे उड़ चले.…
चलकर वो अलम्ब तीर्थ आ पहुंचे ।
वहां जब वो सुवर्ण पर्वत पर उतरने लगे, तो वहां के देववृक्ष जो पहले लहलहा रहे थे, उन्हें अपने उपर उतरते देख वो भय से कांपने लगे, यह देख गरुड़ जी दूसरी तरफ जाने लगे तो एक विशाल वट वृक्ष ने उनका स्वागत करते हुए कहा
"आप मेरे सौ योजन लम्बी शाखा में बैठ कर, आराम से इस कछुए और हाथी को खाइये …!!!! "
गरूड़ जी उस शाखा पे बैठ गए पर जैसे हीं वो शाखा पे बैठे वो शाखा चरमरा कर टूट पडी.…
हालांकि गिरते-गिरते गरुड़ जी ने शाखा को पकड़ लिया,पर क्या देखतें हैं कि उसी शाखा के एक डाल पे वालखिल्य नामक ऋषिगण पावों के बल लटक कर साधना कर रहें हैं!!
गरुड़ जी को लगा अगर डाल गिर गयी तो ऋषिगण मर जाएंगे और इसी करुणा में कि कहीं डाल के गिरने से ऋषिगण मर ना जाएँ, उन्होंने उस शाखा को अपने चोंच में पकडे रखा और हवा में हीं विचरते हुए उतरने का कोई उचित स्थान ढूंढने लगे.…
पर वो जहाँ से भी गुजरते उनके वेग और बल से वहाँ आँधिया चलने लगती और आखिरकार उतरने का कोई स्थान ना पाकर, वो वापस गन्धमादन पर्वत में कश्यप जी के पास हीं पंहुचे।
कश्यप जी जब देखा कि गरूड़ चोंच में एक डाल उठायें हुए हैं, जिसमे वालखिल्य ऋषिगण लटक कर साधना कर रहें हैं, तो उन्होंने गरुड़ जी को सावधान किया और कहा....
"देखों साहस में कुछ ऐसा मत कर बैठना जिससे इन ऋषिगणों की साधना भंग हो जाए, और सूर्य की किरण पी कर तपस्या करने वाले ये वालखिल्य ऋषिगण कहीं क्रोधित हो कर तुम्हे कोई श्राप ना दे बैठे!!!! "
फिर उन्होंने खुद हीं वालखिल्य ऋषिगणों से प्रार्थना की.…
"हे ऋषिगण!! गरुड़ प्रजा के हित के लिए एक महान काम करने जा रहें हैं इसलिए आप लोग इन्हें जाने दें …!!"
वालखिल्य ऋषिगणों ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उन्होंने वो डाल छोड़ दी और तपस्या करने के लिए वो वहां से हिमालय पर्वत की तरफ चले गये...
फिर गरूड़ जी ने वो शाखा फेंक दी और पर्वत की चोंटी पे बैठ कर उन्होंने उस कछुए और हाथी को खाया और फिर से वो अमृत लाने के लिए उड़ चले ।।।
तब गरुड़ के नज़दीक आने से हो रहे भयंकर उत्पातों को देख देवराज इंद्र, अपने गुरु बृहस्पति जी के पास पहुंचे और उनसे पुछा....
"भगवन! ऐसा तो कोई शत्रु प्रतीत नहीं होता जो मुझे युद्ध में जीत ले, फिर अचानक से ये उत्पात क्यों हो रहे हैं!!!! "
बृहस्पति जी ने कहा
"देवराज! तुम्हारे अपराध और प्रमाद के कारण तथा वालखिल्य ऋषिजनो के तपोबल से सज्जित होकर विनीतानन्दन गरुड़ अमृत लेने के लये यहीं आ रहा है, और लगता है उसके वेग, बल और तेज के आगे कोई ठहर भी नहीं पायेगा और लगता है वो यहाँ से अमृत लेकर हीं जायेगा. …"
ये सुनकर इंद्र ने अमृत के रक्षकों को सतर्क कर दिया.…
"परम पराक्रमी पक्षिराज गरुड़ अमृत लेने के लिए इधर हीं आ रहें हैं, आप सतर्क रहें ताकि वो बल पूर्वक यहाँ से अमृत न ले जा पाएं !!.... "
स्वयं इंद्र भी अमृत को घेर कर उसकी रक्षा में खड़े हो गएँ।
लेकिन गरुड़ ने वहां पंहुचते हीं अपने पंजो से इतनी धुल उड़ाई की देवताओं को कुछ भी दिखना बंद हो गया. उसके बाद उन्होंने अपने डैनों , चोंचों और पंजो से उन्हें मार मार कर घायल कर दिया. इंद्र ने वायु से कहा
"वायुदेव! ! तुम यह धूल का पर्दा फाड़ दो! यह तुम्हारा कर्तव्य है.. "
वायु देवता ने वैसा हीं किया.…चारो और साफ़ साफ़ दिखने लगा और देवताओं ने भी गरूड़ के ऊपर प्रहार किया, पर उनके अश्त्र-शस्त्रों के प्रहार से गरुड़ थोड़े भी विचलित नहीं हुए.…
और कुछ हीं देर में सारे देवतागण बुरी तरह से लहू- लुहान हो कर तीतर-बितर हो गए.…
अब गरुड़ आगे बढ़े तो देखते है कि अमृत के चारो तरफ ज्वाला धधक रही है, उन्होंने आठ हज़ार एक सौ मुँह बनाये और उनमे बहुत सारी नदियों का जल भरा और उसे उस ज्वाला में उड़ेल दिया....और अग्नि के शांत होने पर उन्होंने छोटा सा शरीर धारण किया
और आगे बढ़े ....
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