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Thursday, January 8, 2015

जरत्कारू ऋषि की कहानी Mahabharata Episode 11

फिर शौनक जी ने पुछा

"आपने जिन जरत्कारू ऋषि का नाम लिया है, उनका नाम जरत्कारू क्यों पड़ा?? उनके नाम का क्या अर्थ है ? और उनसे आस्तिक ऋषि का जन्म कैसे हुआ था ??"

उग्रश्रवा जी ने कहा

जरा का अर्थ होता है क्षय और कारू का मतलब है दारुण, मतलब हट्टा कट्टा। उनका शरीर बहुत हट्टा कट्टा था, जिसे उन्होंने तपस्या करके क्षीण कर लिया था, इसलिए उनका नाम पड़ा जरत्कारू।


वासुकि की बहन भी ऐसी हीं थी. उसने भी तपस्या कर अपना शरीर क्षीण कर लिया था, इसलिए वो भी जरत्कारू कहलाई।


जरत्कारू ऋषि विवाह नहीं करना चाहतें थे।

 उन्होंने बहुत दिनों तक ब्रहमचर्य धारण कर तपस्या की।
वो जप, तप और स्वाध्याय में लगे रहतें और निर्भय होकर स्वच्छंद रूप से पृथ्वी का भ्रमण करते रहतें। 


उनका नियम था, जहाँ भी शाम हो जाती, वो वहीँ रुक जाते।एक दिन यात्रा करते समय उन्होंने देखा कि कुछ पितर नीचे की ओर मुँह किये एक गड्ढे से लटक रहे हैं। 


वो खस का एक तिनका पकडे हुए थे और वही केवल बच भी रहा था। उस तिनके की जड़ को भी एक चूहा कुतर रहा था।


पितृगण निराहार थे, दुबले और दुखी थे।।

जरत्कारू ने उनके पास जाकर पुछा  …
 
आपलोग जिस तिनके का सहारा लेकर लटक रहें है, उसके जड़ को एक चूहा कुतर रहा है, जड़ जब कट जाएगा, तो आप इस गड्ढे में गिर पड़ेंगे। आपलोग कौन हैं!!! और कैसे इस मुसीबत में आ पड़े हैं। मझे आपलोगों को इस तरह देख कर बहुत दुःख हो रहा है. मैं आपकी किस तरह से मदद करूँ !! 

मैं अपनी तपस्या का दसवा, चौथाई अथवा आधा फल देकर भी अगर आपलोगों का इस कष्ट से निवारण कर सकूं, तो मुझे बताये। यहाँ तक की मैं अपने पूरे तपस्या का फल देकर भी आपलोगों को बचाना चाहता हूँ !!!! "


इस पर उन पितरों ने कहा ....

"तपस्या का फल तो हमारे पास भी है। तपस्या के फल से हमारी विप्पति नहीं टल सकती । हम कुल-धर्म परंपरा के नाश  होने के कारण इस गति को प्राप्त हो रहे हैं। हमारे कुल में अब सिर्फ एक हीं व्यक्ति रह गया है, जरत्कारू!! और हमारे अभाग्य से वो भी तपस्वी हो गया है!! वो विवाह नहीं करना चाहता है।

तपस्या के लोभ में उसने हमे इस अधोगति पे पंहुचा दिया है। उसका कोई भाई-बन्धु  पत्नी-पुत्र नहीं  है। इसी कारण हम अनाथों की भाँती इस गड्ढे में लटक रहें हैं ।
और आप जो खस की जड़ देख रहें है, वही हमारे वंश का सहारा है, और वो आखिरी तिनका, हमारे वंश का आखिरी पुरुष जरत्कारू है। ये चूहा महाकाल है, जो धीरे-धीरे इसे कुतर रहा  है। 

अगर तुम हमारी मदद करना चाहते हो, तो, अगर तुम्हे कहीं जरत्कारू दिखे तो उससे कहना, यह महाबली काल एक दिन उसे भी नष्ट कर देगा, और तब हम सब और भी मुसीबत में आ पड़ेंगे।।"


यह सुनकर जरत्कारू ऋषि को बड़ा दुःख हुआ, उनका गला भर आया, और वो गदगद गले से बोले...

"आपलोग मेरे हीं पिता और पितामह हैं, मैं आपका अपराधी पुत्र जरत्कारू हूँ.... "

पितरों ने कहा

"यह बहुत सौभाग्य की बात है कि तुम हमे मिल गए हो। यह बताओ तुमने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया है !!"

जरत्कारू ऋषि ने कहा

"मैंने अपने मन में यह दृढ निश्चय कर लिया था कि मैं कभी विवाह नहीं करूंगा। परन्तु अब, आपलोग के कष्ट को देखकर, मैंने ब्रह्मचर्य का निश्चय पलट दिया है। 

अगर मुझे अपने हीं नाम की कोई स्त्री भिक्षा के रूप में मिल जाए,तो मैं उस कन्या से विवाह  कर लूँगा, पर उसके भरण-पोषण का भार नहीं उठाऊंगा ।।

ऐसी सुविधा मिलने पर हीं मैं विवाह करूंगा अथवा नहीं। आप चिंता ना करें। आप के कल्याण के लिए मेरा विवाह अवश्य होगा।
 
ये कहकर वो पुनः पृथ्वी पे विचरने लगे। 

पर एक तो बूढ़ा समझकर उन्हें कोई अपनी कन्या नहीं देता अथवा उन्हें अपने अनुरूप कन्या नहीं मिलती।


इससे निराश होकर एक दिन वो वन में गए और पितरों के हित के लिए तीन बार धीरे धीरे ये बोला ....

"मैं कन्या की आचना करता हूँ।

 जो भी चर-अचर, अथवा गुप्त और प्रकट प्राणी हैं सुने, मैं अपने पितरों के कल्याण के लिए, उनकी प्रेरणा से एक कन्या की भीख मांगता हूँ। जिस कन्या का नाम मेरा हीं हो, जो मुझे दान की तरह दी जाए, और जिसके भरण पोषण का दायित्व्य मेरे उपर ना हो, वैसी कन्या मुझे प्रदान करो।।।। 


वासुकि नाग के नियुक्त सर्पों ने जब ऐसा सुना, तो उन्होंने जा कर नागराज वासुकि को ये बताया, तो नागराज वासुकि चटपट अपनी बहन जरत्कारू को लेकर वहां पहुंच गए।।


जरत्कारू ऋषि ने उनके सामने अपनी बात  दुहराई.....

इसका नाम भी जरत्कारू हीं होना चाहिए और मुझे यह भिक्षा में मिलनी चाहिए और मैं इसका भरण पोषण नहीं करूंगा !!

वासुकि ने कहा

"इसका नाम भी जरत्कारू हीं है, ये मेरी बहन है। इसकी भरण पोषण और रक्षा मैं करूंगा। आपके लिए हीं मैंने इसे अब तक रख छोड़ा है....। "


इस पर जरत्कारू ने कहा

इसका भरण पोषण मैं नहीं करूंगा, ये एक शर्त तो हो हीं गयी। दूसरा और एक सुन लो!! अगर इसने कभी, मेरा कोई अप्रिय काम किया तो मैं इसे छोड़ कर चला जाऊँगा।
 
जब नागराज वासुकि ने उनकी सभी शर्तों को मान लिया।

वो उन्हें अपने महल में ले आयें। वहां उनका विधिवत विवाह हुआ। वो सुख से सर्पराज वासुकि के  महल में रहने लगे। 

उन्होंने अपनी पत्नी को भी यह बता दिया था...

"मेरी रूचि के खिलाफ ना तो कुछ करना, ना हीं कुछ बोलना, वरना मैं तुम्हे छोड़कर चला जाऊँगा !! "


उसके बाद उनकी पत्नी जरत्कारू बहुत ध्यान से उनकी सेवा करने लगी और समय रहते उसे गर्भ ठहर हो गया।


एक दिन शाम में कुछ खिन्न हो कर जरत्कारू ऋषि अपनी पत्नी की गोद में सर रखकर सो रहें थे।  


संध्याकाळ हो चूका था और क्षण भर में सूर्यास्त हुए जाता था। 

ऋषिपत्नी को धर्मसंकट आ गया.....

अगर उठाया तो उनके आराम में विघ्न होगा और सोने दिया तो धर्मलोप!!!

ऋषिपत्नी ने जरत्कारू के आराम के ऊपर उनके धर्मपालन को महत्व दिया और धीरे से बोलीं...

हे भगवन!! उठे और देखें की सूर्यास्त होने हीं वाला है।  अग्निहोत्र का समय है, कृपया संध्या-वंदना के लिए उठे !!

नींद में विघ्न पड़ने पर जरत्कारू ऋषि बड़े गुस्से में उठे। क्रोध से उनके होठ कांपने लगें और उन्होंने बड़े गुस्से में कहा ...

सर्पिनी!! तूने मेरा अपमान किया है! मेरा यह दृढ  निश्चय है कि मेरे सोते हुए कभी भी सूर्यास्त नहीं हो सकता। अब मैं अपने अपमान की जगह में नहीं रह सकता।

इस ह्रदय में कंपकपी पैदा कर देने वाली बात को सुन ऋषिपत्नी बोली.....

"मगर प्रभु मैंने आपके अपमान के उद्देश्य से आपको नहीं उठाया। आपके धर्म का लोप ना हो, यही मेरी दृष्टी थी..."
इस पर जरत्कारू ऋषि बोले

अब मेरा बोला टल नहीं सकता। वैसे भी ये हमारी शर्त में था। अब मैं जहाँ से आया था, वहीँ जा रहा हूँ। तुम अपने भाई से कहना मैं जितने दिन यहाँ रहा, बड़े सुख से रहा....."

यह सुनकर ऋषिपत्नी डरते-डरते दुबारा बोली...

धर्मज्ञ! मुझ निपराध को ऐसे ना छोडिये! आप तो जानते हीं है की मेरे आपके विवाह का एक प्रयोजन था कि हमारे संयोग से एक पुत्र पैदा हो, जो हम सर्पों को राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ में बचाएगा। अभी तो मेरे गर्भ से संतान भी नही हुई है आप मुझे क्यों छोड़ कर जाना चाहतें हैं !! कृपया तब तक आप ठहर जाइये..."

इस पर जरत्कारू ऋषि ने कहा


"तुम्हारे गर्भ में एक अग्नि के सामान तेजस्वी बालक है, जो बहुत हीं बड़ा विद्वान तपस्वी होगा ...।।"

इसके बाद जरत्कारू ऋषि वहां से चले गए। 

उनके जाते हीं ऋषिपत्नी ने उनके जाने की बात वासुकि जी को बताई ।

 वासुकी जी को यह सुनकर बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने ह्रदय कड़ा कर पुछा...

"उनके क्रोध के सामने कौन ठहर सकता है!! कहीं मैं उन्हें बुलाने जाऊं और वो मुझे गुस्से में श्राप न दे दे !!

बहिन! भाई को ऐसी बातें बहन से करना शोभा नहीं देता। परन्तु तुम तो जानती हीं हो को तुम्हारे उनके विवाह का एक प्रयोजन था। 

क्या तुम्हारा गर्भ ठहरा है ????

इस पर ऋषि-पत्नी ने उनकी बात दुहरा दी और कहा

"कभी विनोद में भी उन्होंने असत्य नहीं कहा!! ... "

यह सुनकर वासुकि जी बड़े प्रसन्न हुए और बड़े प्रेम से अपनी बहन का स्वागत-संस्कार करने लगे। 

समय आने पे उसके गर्भ से एक दिव्य-कुमार का जन्म हुआ।  

उसके जन्मने से मातृवंश और पितृवंश दोनों का भय जाता रहा। 

बाल्यावस्था में बड़े प्रयत्नो से उसकी रक्षा की गयी और थोड़े हीं दिनों में बालक इंद्र के समान बढ़कर नागो को हर्षित करने लगा।

 क्रमशः बड़े होकर उसने च्व्यन ऋषि से वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया। 


चूँकि जब वह गर्भ में था, तो उसके पिता ने उसके लिए "अस्ति"( है ) शब्द का उच्चारण किया था, इसलिए उनका नाम आस्तिक पड़ा।।।।

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