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Friday, January 16, 2015

सर्प-यज्ञ का प्रारम्भ Episode 13

उग्रश्रवा जी कहते हैं.…

अपने मंत्रियों से अपने पिता की मृत्यु का इतिहास जानने के बाद राजा जनमेजय के अंदर क्रोध और दुःख दोनों के भाव उभरे।

उनके आँखों से आंसू गिरने लगे।  दुःख, शोक, और क्रोध से अभिभुर, आँखों से आंसू बहाते हुए, उन्होंने हाथों में जल लेकर, शाष्त्रोयुक्त तरीके से यह प्रतिज्ञा की.….

"मैं तक्षक से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का संकलप करता हूँ!! उस दुष्ट तक्षक के कारण हीं मेरे पिता की मृत्यु हुई है.श्रृंगी ऋषि का श्राप तो सिर्फ एक बहाना मात्र था. इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि उसने कश्यप ऋषि को ,जो मेरे पिता का विष उतारने के लिए आ रहे थे, उनको धन दे कर लौटा दिया. 

अगर उसने ऐसा नहीं किया होता,तो अवश्य हीं मेरे पिता को कश्यप ऋषि जीवित कर देते, और इससे श्रृंगी ऋषि का श्राप भी पूरा हो जाता और मेरे पिता भी जीवित रहते। इससे भला उस तक्षक की क्या हानि हो जाती ....." 

मंत्रियों ने राजा जनमेजय की प्रतिज्ञा का अनुमोदन किया।।

जनमेजय ने तब अपने मंत्रीगणों और पुरोहितो से ये पुछा कि बताइये……

तक्षक ने मेरे पिता के साथ हिंसा की है, मैं इसके लिए उसे उस सर्प को धधकती आग में होम करना  चाहता हूँ ।।आप कोई ऐसी ऐसी विधि बताइये …....  

इस पर ऋत्विजों ने कहा
राजन !! पहले से हीं देवताओं ने आपके लिए एक महायज्ञ का निर्माण कर रखा है. यह बात पुराणो में भी वर्णित है। आपके अलावा ये महायज्ञ और कोई करेगा भी नहीं।  हमे इस यज्ञ की विधि मालूम है. … इस यज्ञ के यज्ञ-कुंड में सारे सर्पो के साथ तक्षक भी जल कर भष्म हो जाएगा।।।। 

राजा जनमेजय ने उन्हें यज्ञ की सामग्री जुटाने का आदेश दे दिया….

यज्ञ-मंडप तथा यज्ञ-शाला बनकर तैयार हुए, और राजा जनमेजय यज्ञ के लिए दीक्षित हुए. तभी एक अजीब बात हुई।  किसी कला कौशल के पारंगत विद्वान, अनुभवी, और बुद्धिमान सूत ने कहा ……

"जिस स्थान और जिस समय में यज्ञ-मंडप मापने की क्रिया का प्रारम्भ हुआ है, उससे ऐसा लगता है कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकेगा..........  

ऐसा सुनकर राजा जनमेजय ने द्धारपालो से कहा दिया कि बिना मुझे सुचना दिए, कोई भी पुरुष यज्ञ-मंडप में प्रवेश न कर सके. .

थोड़ी देर सर्प-यज्ञ प्रारम्भ हुआ।  धुंए से लोगों की आँखें लाल हो गयी। काले-काले कपडे पहने, ऋषि-गण जोर- जोर से मंत्रोचार कर रहे थे.

उस समय सारे सर्पों का ह्रदय डर से कांपने लगा। एक दुसरे से लिपटते, चिल्लाते-चीखते बेचारे सर्प आ-आ कर यज्ञ-कुण्ड में गिरने लगे. उनके जलने की दुर्गन्ध चारो तरफ फ़ैल गयी और उनके चिल्लाहटों से सारा आकाश गूँज उठा।।।

यह समाचार तक्षक ने भी सुना। वो भयभीत होकर देवराज इंद्र के पास गया और कहा…

देवराज!! मैं अपराधी हूँ।  भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा करिये।।।।।

इंद्र ने प्रसन्न हो कर कहा

मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए पहले से हीं से ब्रह्मा जी से अभयवचन ले लिया है। तुम्हे सर्प यज्ञ से कोई भय नहीं। तुम दुखी मत हो। 

इंद्र की बात सुनकर तक्षक आनंद से इंद्रभवन में हीं रहने लगा.……     










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