उग्रश्रवा जी कहते हैं…
इस प्रकार यज्ञ में बहुत से सर्प नष्ट हो गए और थोड़े हीं बचे। इससे वासुकि नाग को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने घबराये हुए स्वरों में अपनी बहन, ऋषिपत्नी जरत्कारु को कहा.…
बहिन !! मेरा अंग-अंग जल रहा है। आँखों के आगे इतना अँधेरा छाया है कि मेरा दिशा ज्ञान खोता चला जा रहा है। खड़ा होना भी मुश्किल है!! लगता है मैं भी बलात पूर्वक उस यज्ञ की अग्नि में जा गिर पडूंगा।
मैंने इसी समय के लिए तुम्हारा विवाह जरत्कारु ऋषि से कराया था। तुम अपने पुत्र आस्तिक को ब्रह्मा जी के कथनानुसार इस यज्ञ को बंद कराने के लिए कहो।
इस पर ऋषिपत्नी जरत्कारु ने अपने पुत्र को सारा इतिहास बतला कर, उन्हें सर्पो की रक्षा के लिए प्रेरित किया। इस पर आस्तिक बोले
"नागराज!! आप मन में शांति रखिये। मैं आप से सत्य-सत्य कहता हूँ, मैं उस श्राप से आपलोगों को मुक्त करा लूंगा. मैंने कभी परिहास में भी असत्य वचन नहीं बोला है।
मैं अपने मीठे वचनो से राजा जनमेजय को प्रसन्न कर लूँगा और वह यज्ञ बंद कर देगा। मामा जी !! आप मेरा विश्वास करें …"
यह बोलकर, आस्तिक यज्ञशाला की तरफ चल दिए।
वहां पंहुच कर उन्होंने देखा की सूर्य और अग्नि के सामान तेजस्वी सभासदों से पूरी यज्ञशाला भरी पड़ी है। द्धारपालो ने उन्हें यज्ञ मंडप में प्रवेश करने से रोक दिया।
इस पर आस्तिक द्धार से खड़े-खड़े हीं यज्ञ की स्तुति करने लगे।
उनके द्वारा यज्ञ की स्तुति सुनने के पश्चात, जनमेजय ने उन्हें अंदर आने दे दिया।
अंदर आ कर वो और ऋत्विजों के साथ यज्ञ की स्तुति करने लगे। अभी वो बालक हीं थे मगर उनकी स्तुति सुनकर राजा, सभासद, ऋत्विज और अग्नि सभी प्रसन्न हो गए। जनमेजय ने खुश हो कर कहा.…
"यद्यपि ये बालक हैं, पर फिर भी बात अनुभवी वृद्धों के समान कर रहा है। मैं इसे वर देना चाहता हूँ। आपकी क्या मंत्रणा है!!! "
इस पर वहां मौजूद सभी सभासदों, ऋत्विजों ने एक स्वर में कहा
बालक ब्राह्मण भी राजा के लिए सम्मानीय है ,फिर, अगर वो बालक विद्वान हो तो कहना हीं क्या!!! अतः आप इस बालक को मनमांगी वास्तु दे सकते हैं।।
इस पर राजा जनमेजय ने कहा
आपलोग और प्रयत्न्न कीजिये जिससे तक्षक नाग यहाँ आ कर भष्म हो। वही तो मेरा प्रधान शत्रु है। ।
ऋत्विजों ने कहा
अग्निदेव का कहना है कि तक्षक इंद्र की शरण में चला गया है और उन्होंने उसे अभयदान दिया है…
इस पर जनमेजय ने कुछ खिन्न होकर कहा …
आपलोग कुछ ऐसा कीजिये कि वो इंद्र के सहित इस अग्नि में आ गिरे…
इसके बाद होता ने आहूति डाली, तो उसी समय तक्षक और इंद्र दोनों आकाश में दिखाई दिए। इंद्र तो उस यज्ञ को देखकर बहुत हीं घबरा गए और तक्षक को छोड़ कर चलते बने।
तक्षक क्षण-क्षण अग्नी ज्वाला के समीप आने लगा, तब ब्राह्मणो ने कहा.…
अब आपका काम ठीक -ठीक हो रहा है। आप इस ब्राह्मण को वर दे दीजिये....
तब राजा जनमेजय ने कहा
ब्राह्मणकुमार ! मैं आपके जैसे सत्पात्र को वर देना चाहता हूँ। अतः आपकी जो इच्छा हो ,वो आप मांग ले। आपको मैं कठिन से कठिन वर भी दूंगा। आप मांगिये।
आस्तिक ने देखा कि अब तक्षक अग्नि में गिरने हीं वाला है तो उसी वक़्त उन्होंने वर माँगा
राजन !! आप प्रसन्न हों तो इसी समय यह सर्प यज्ञ बंद कर दे, जिससे इसमें गिरते हुए सर्प बच जाए। ।
इस पर जनमेजय ने कुछ अप्रसन्न होकर कहा.…
समर्थ ब्राह्मण!! तुम सोना- चांदी, धन, गाये, राज्य कुछ भी मांग लो मगर यह नहीं।
इस पर आस्तिक ने कहा
मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मातृकुल के कल्याण के लिए मैं आपका यज्ञ हीं बंद कराना चाहता हूँ।
जनमेजय के बार-बार मनाने के बावजूद जब आस्तिक ने दूसरा वर नहीं माँगा, तो सभी सभासदों ने एक स्वर से कहा
ये ब्राह्मणकुमार जो भी मांगता है, इसे मिलना हीं चाहिए।।
तब शौनक जी ने पुछा
सुतनन्दन!! उस यज्ञ में तो और भी ब्राह्मण और विद्वान ऋत्विज मौजूद थे, तो आस्तिक के बात करते -करते तक्षक अग्नि में नहीं गिरा, इसका क्या कारण हुआ ?? क्या ब्राह्मणो को वैसे मंत्र नहीं सूझे ???
इस पर उग्रश्रवा जी कहतें हैं
जब तक्षक इंद्र के हाथों से छूटा तो वो मुर्क्षित हो गया। तब आस्तिक ने तीन बार कहा
"ठहर जा !! ठहर जा !! ठहर जा !!"
इससे वो यज्ञ-कुंड और आकाश के बीच स्थिर हो गया और अग्नि में नहीं गिरा …
सभासदों के बार-बार कहने पर आख़िरकार, राजा जनमेजय ने कहा.…
अच्छा!! आस्तिक की इच्छा पूर्ण हो। यज्ञ बंद हो और इसी के साथ हमारे सूत की बात भी सच साबित हुई।
इसके बाद जनमेजय ने वहां आये सारे ऋत्विज, सदस्यों और ब्राह्मणो को भरपूर दान दिया. और उस सूत का भी बहुत सत्कार हुआ।।
आस्तिक का भी बहुत आदर-सत्कार हुआ। जनमेजय ने उन्हें विदा करते समय कहा.…
आप मेरे अश्वमेघ यज्ञ में सभासद बने........
आस्तिक ने कहा ……
तथास्तु !!
इसके बाद आस्तिक ने अपने मामा के घर जाकर उन्हें सारी बात बतायी।
उस समय नागराज वासुकि की सभा में सारे बचे हुए सर्प उपस्थित थे। आस्तिक की बात सुनकर सारे सर्प बड़े प्रसन्न हुए। वासुकि जी ने बड़े प्यार से उन्हें गले लगा कर कहां……
बेटा !! तुमने हमे मृत्यु के मुँह से निकाल दिया। बताओ हम ऐसा क्या करें जिससे तुम प्रसन्न हो..... वर मांगो !!!
इस पर आस्तिक ने कहा
"आप सभी सर्प मुझे वर दे कि जो भी मनुष्य धर्मपूर्वक इस कथा का प्रातःकाल और संध्याकाल में पाठ करे, उसे सर्पों से कोई भय नहीं हो…"
इस पर सर्पों ने एक सुर से कहा
ऐसा हीं होगा !!!!!!!!!!!!
इस प्रकार यज्ञ में बहुत से सर्प नष्ट हो गए और थोड़े हीं बचे। इससे वासुकि नाग को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने घबराये हुए स्वरों में अपनी बहन, ऋषिपत्नी जरत्कारु को कहा.…
बहिन !! मेरा अंग-अंग जल रहा है। आँखों के आगे इतना अँधेरा छाया है कि मेरा दिशा ज्ञान खोता चला जा रहा है। खड़ा होना भी मुश्किल है!! लगता है मैं भी बलात पूर्वक उस यज्ञ की अग्नि में जा गिर पडूंगा।
मैंने इसी समय के लिए तुम्हारा विवाह जरत्कारु ऋषि से कराया था। तुम अपने पुत्र आस्तिक को ब्रह्मा जी के कथनानुसार इस यज्ञ को बंद कराने के लिए कहो।
इस पर ऋषिपत्नी जरत्कारु ने अपने पुत्र को सारा इतिहास बतला कर, उन्हें सर्पो की रक्षा के लिए प्रेरित किया। इस पर आस्तिक बोले
"नागराज!! आप मन में शांति रखिये। मैं आप से सत्य-सत्य कहता हूँ, मैं उस श्राप से आपलोगों को मुक्त करा लूंगा. मैंने कभी परिहास में भी असत्य वचन नहीं बोला है।
मैं अपने मीठे वचनो से राजा जनमेजय को प्रसन्न कर लूँगा और वह यज्ञ बंद कर देगा। मामा जी !! आप मेरा विश्वास करें …"
यह बोलकर, आस्तिक यज्ञशाला की तरफ चल दिए।
वहां पंहुच कर उन्होंने देखा की सूर्य और अग्नि के सामान तेजस्वी सभासदों से पूरी यज्ञशाला भरी पड़ी है। द्धारपालो ने उन्हें यज्ञ मंडप में प्रवेश करने से रोक दिया।
इस पर आस्तिक द्धार से खड़े-खड़े हीं यज्ञ की स्तुति करने लगे।
उनके द्वारा यज्ञ की स्तुति सुनने के पश्चात, जनमेजय ने उन्हें अंदर आने दे दिया।
अंदर आ कर वो और ऋत्विजों के साथ यज्ञ की स्तुति करने लगे। अभी वो बालक हीं थे मगर उनकी स्तुति सुनकर राजा, सभासद, ऋत्विज और अग्नि सभी प्रसन्न हो गए। जनमेजय ने खुश हो कर कहा.…
"यद्यपि ये बालक हैं, पर फिर भी बात अनुभवी वृद्धों के समान कर रहा है। मैं इसे वर देना चाहता हूँ। आपकी क्या मंत्रणा है!!! "
इस पर वहां मौजूद सभी सभासदों, ऋत्विजों ने एक स्वर में कहा
बालक ब्राह्मण भी राजा के लिए सम्मानीय है ,फिर, अगर वो बालक विद्वान हो तो कहना हीं क्या!!! अतः आप इस बालक को मनमांगी वास्तु दे सकते हैं।।
इस पर राजा जनमेजय ने कहा
आपलोग और प्रयत्न्न कीजिये जिससे तक्षक नाग यहाँ आ कर भष्म हो। वही तो मेरा प्रधान शत्रु है। ।
ऋत्विजों ने कहा
अग्निदेव का कहना है कि तक्षक इंद्र की शरण में चला गया है और उन्होंने उसे अभयदान दिया है…
इस पर जनमेजय ने कुछ खिन्न होकर कहा …
आपलोग कुछ ऐसा कीजिये कि वो इंद्र के सहित इस अग्नि में आ गिरे…
इसके बाद होता ने आहूति डाली, तो उसी समय तक्षक और इंद्र दोनों आकाश में दिखाई दिए। इंद्र तो उस यज्ञ को देखकर बहुत हीं घबरा गए और तक्षक को छोड़ कर चलते बने।
तक्षक क्षण-क्षण अग्नी ज्वाला के समीप आने लगा, तब ब्राह्मणो ने कहा.…
अब आपका काम ठीक -ठीक हो रहा है। आप इस ब्राह्मण को वर दे दीजिये....
तब राजा जनमेजय ने कहा
ब्राह्मणकुमार ! मैं आपके जैसे सत्पात्र को वर देना चाहता हूँ। अतः आपकी जो इच्छा हो ,वो आप मांग ले। आपको मैं कठिन से कठिन वर भी दूंगा। आप मांगिये।
आस्तिक ने देखा कि अब तक्षक अग्नि में गिरने हीं वाला है तो उसी वक़्त उन्होंने वर माँगा
राजन !! आप प्रसन्न हों तो इसी समय यह सर्प यज्ञ बंद कर दे, जिससे इसमें गिरते हुए सर्प बच जाए। ।
इस पर जनमेजय ने कुछ अप्रसन्न होकर कहा.…
समर्थ ब्राह्मण!! तुम सोना- चांदी, धन, गाये, राज्य कुछ भी मांग लो मगर यह नहीं।
इस पर आस्तिक ने कहा
मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मातृकुल के कल्याण के लिए मैं आपका यज्ञ हीं बंद कराना चाहता हूँ।
जनमेजय के बार-बार मनाने के बावजूद जब आस्तिक ने दूसरा वर नहीं माँगा, तो सभी सभासदों ने एक स्वर से कहा
ये ब्राह्मणकुमार जो भी मांगता है, इसे मिलना हीं चाहिए।।
तब शौनक जी ने पुछा
सुतनन्दन!! उस यज्ञ में तो और भी ब्राह्मण और विद्वान ऋत्विज मौजूद थे, तो आस्तिक के बात करते -करते तक्षक अग्नि में नहीं गिरा, इसका क्या कारण हुआ ?? क्या ब्राह्मणो को वैसे मंत्र नहीं सूझे ???
इस पर उग्रश्रवा जी कहतें हैं
जब तक्षक इंद्र के हाथों से छूटा तो वो मुर्क्षित हो गया। तब आस्तिक ने तीन बार कहा
"ठहर जा !! ठहर जा !! ठहर जा !!"
इससे वो यज्ञ-कुंड और आकाश के बीच स्थिर हो गया और अग्नि में नहीं गिरा …
सभासदों के बार-बार कहने पर आख़िरकार, राजा जनमेजय ने कहा.…
अच्छा!! आस्तिक की इच्छा पूर्ण हो। यज्ञ बंद हो और इसी के साथ हमारे सूत की बात भी सच साबित हुई।
इसके बाद जनमेजय ने वहां आये सारे ऋत्विज, सदस्यों और ब्राह्मणो को भरपूर दान दिया. और उस सूत का भी बहुत सत्कार हुआ।।
आस्तिक का भी बहुत आदर-सत्कार हुआ। जनमेजय ने उन्हें विदा करते समय कहा.…
आप मेरे अश्वमेघ यज्ञ में सभासद बने........
आस्तिक ने कहा ……
तथास्तु !!
इसके बाद आस्तिक ने अपने मामा के घर जाकर उन्हें सारी बात बतायी।
उस समय नागराज वासुकि की सभा में सारे बचे हुए सर्प उपस्थित थे। आस्तिक की बात सुनकर सारे सर्प बड़े प्रसन्न हुए। वासुकि जी ने बड़े प्यार से उन्हें गले लगा कर कहां……
बेटा !! तुमने हमे मृत्यु के मुँह से निकाल दिया। बताओ हम ऐसा क्या करें जिससे तुम प्रसन्न हो..... वर मांगो !!!
इस पर आस्तिक ने कहा
"आप सभी सर्प मुझे वर दे कि जो भी मनुष्य धर्मपूर्वक इस कथा का प्रातःकाल और संध्याकाल में पाठ करे, उसे सर्पों से कोई भय नहीं हो…"
इस पर सर्पों ने एक सुर से कहा
ऐसा हीं होगा !!!!!!!!!!!!
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