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Saturday, October 24, 2015

भरत Mahabharata Episode 20

वैशम्पायन जी कहते हैं...

समय आने पर शकुंतला के गर्भ से एक पुत्र हुआ। यह बालक बचपन से हीं बड़ा बलिष्ट था।  उसके ललाट चौड़े, कंधे सिंह जैसे, दांत नुकीले और उसके दोनों हाथो में चक्र था।  महर्षि कण्व ने विधि पूर्वक उसके जात कर्म आदि संस्कार किये।

मात्र छह वर्ष की आयु में हीं वह सारे जंगली जानवरों, हाथी-सिंह आदि को आश्रम के वृछो से बाँध देता।  कभी उनके दांत गिनता, कभी उन्हें प्रेम से सहलाता और कभी उनकी सवारी करता।  दिखने में तो वो बिलकुल देवकुमार लगता।  आश्रमवासियों ने उसके द्वारा सारे हिंसक जंगली जानवरों का दमन होते देख कर उसका नाम सर्वदमन रख दिया।

बालक के अलौकिक कर्म को देख महर्षि कण्व ने एक दिन शकुंतला को बुलाया और कहा

यह बालक अब युवराज बनने के योग्य हो गया है।  

फिर उन्होंने शिष्यों को बुलाकर कहा

तुमलोग शकुंतला और बच्चे को इनके घर पंहुचा आओ।  विवाहित स्त्री का बहुत दिनों तक मायके में रहना कीर्ति, चरित्र और धर्म का घातक है। 

शिष्यों ने आज्ञानुसार उन्हें हस्तिनापुर पंहुचाया और फिर वापस लौट गए।

सूचना और स्वीकृति के बाद शकुंतला राज्य सभा में पंहुची।

शकुंतला ने सभा में पंहुच कर प्रेम पूर्वक निवेदन किया... 

महाराज ! यह आपका पुत्र है, अब आप अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए इसे युवराज बनाइये।  

इस पर राजा दुष्यंत ने कहा

 अरी दुष्ट तापसी!! तू किसकी पत्नी है !! मुझे तो कुछ भी स्मरण नहीं है !! तेरे साथ मेरा धर्म अर्थ काम कोई सम्बन्ध नहीं है !! तू जा ठहर अथवा जो तेरी मौज में आये कर !!

ऐसा सुनकर शकुंतला बेहोश सी होकर खम्भे की तरह निस्चल खड़ी रह गयी।

उसकी आँखे लाल हो गयी, होठ फड़कने लगे, और दृष्टि टेढ़ी कर वो दुष्यंत की ओर देखने लगी।  थोड़ी देर ठहर कर दुःख और क्रोध से भरी शकुंतला ने कहा …

महाराज ! आप जान बूझकर ऐसी बाते क्यों कर रहे हैं ! ऐसा तो नीच पुरुष करते हैं ! आपका ह्रदय कुछ और कह रहा है और आप कुछ और कह रहे हैं। यह तो बहुत बड़ा पाप है।  आप ऐसा समझ रहे हैं कि उस समय मैं अकेला था और इसका कोई साक्षी नहीं है, ऐसा समझ कर आप यह बात कह रहे हैं  मगर आप यह न भूले कि परमात्मा सबके ह्रदय में बैठा है।  वो सबके पाप पुण्य को जानता है।  

पाप करके ये समझना कि मुझे कोई नहीं देख रहा है, घोर अज्ञान है। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, ह्रदय, यमराज, दिन, रात संध्या, धर्म - ये  सब मनुष्य के शुभ अशुभ कर्मो को जानते हैं।  जिस पर हृदयस्थित कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञ परमात्मा संतुष्ट रहते हैं, यमराज उनके पापों को स्वयं नष्ट कर देते हैं।  परन्तु जिसका अंतर्यामी संतुष्ट नहीं, यमराज स्वयं उसके पापों का दंड देते हैं।  

अपनी आत्मा का तिरस्कार कर जो कुछ का कुछ कर बैठता है, देवता भी उसकी सहायता नहीं करते, क्योंकि वह स्वयं भी अपनी सहायता नहीं करता।
  
मैं स्वयं आपके पास चली आयी हूँ, इसलिए आप साधारण पुरुषों की तरह भरी सभा में मेरे जैसी पतिव्रता स्त्री का तिरष्कार कर रहें हैं। अगर आप मेरी उचित याचना पे ध्यान नहीं देंगे, तो आपके सर के सौ टुकड़े हो जाएंगे !!

राजन ! मैंने तीन वर्ष तक इस बालक को अपने गर्भ में रखा था, इसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि ये बालक सौ अश्वमेघ यज्ञ करेगा।  

दुष्यंत  ने कहा … 

शकुन्तले ! मुझे नहीं याद मैंने तुमसे कोई पुत्र उत्पन्न किया था। स्त्रियां तो प्रायः झूठ बोलती हैं। तुम्हारी बात पे कौन विश्वास करेगा।  तुम्हारी एक बात भी विश्वास करने योग्य  नहीं है। मेरे सामने इतनी बड़ी ढिठाई !! कहाँ विश्वामित्र, कहाँ मेनका, और कहाँ तेरे जैसी साधारण नारी !! चली जा यहाँ से !! इतने थोड़े दिनों में भला यह बालक साल के वृछ जैसा कैसे हो सकता है ! जा जा !! चली जा यहाँ से !! 

शकुंतला ने कहा

राजन !! कपट न करो !  चाहे सारे वेदों को पढ़ लो, सारे तीर्थो में स्नान कर लो मगर फिर भी सत्य उससे बढ़कर है। सत्य स्वयं परमब्रह्म परमात्मा है।  सत्य हीं सर्वश्रेष्ठ प्रतिज्ञा है।  तुम अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़ो ! तुम इसे स्वीकार करो अथवा नहीं, यह बालक हीं सारे पृथ्वी पर राज्य करेगा।  

इतना कह कर शकुंतला सभा से निकल पड़ी।  तभी वहां आकाशवाणी हुई। 

शकुंतला की बात सत्य है।  तुम शकुंतला का अपमान मत करो।  औरस पुत्र तो पिता को यमराज से भी चुरा लाता है।  तुम अपने पुत्र का भरण पोषण करो। तुम्हे हमारी आज्ञा मान कर ऐसा हीं करना चाहिए। तुम्हारे भरण- पोषण के कारण इसका नाम भरत होगा।  

आकाशवाणी सुनकर दुष्यंत आनंद से भर गए।  उन्होंने मंत्रियों और पुरोहितों को कहा... 

आपलोग कानो से देवताओं की वाणी सुन ले।  मैं ठीक-ठीक जानता और समझता हूँ कि यह मेरा हीं पुत्र है, मगर अगर मैं इसे सिर्फ शकुंतला की बाते सुनकर अपना लेता, तो सारी प्रजा इस पर संदेह करती और इसका कलंक नहीं छूट पाटा।  इसी उद्देस्य से मैंने शकुंतला का इतना अपमान किया।  

अब उन्होंने बच्चे को स्वीकार कर लिया। उसके सारे संस्कार करवाये।  उन्होंने पुत्र का सर चूमकर उसे हृदय से लगा लिया।

 दुष्यंत ने  धर्म के अनुसार अपनी पत्नी का स्वागत किया और कहा... 

देवी !! मैंने तुम्हारे मान को रखने के लिए हीं तुम्हारा इतना अपमान किया।  सबलोग तुम्हे रानी के रूप में स्वीकार कर ले इसीलिए मैंने तुम्हारे साथ क्रूरता के साथ व्यवहार किया।  अगर मैं सिर्फ तुम्हारी बात  अपना लेता तो लोग समझते कि मैंने मोहित होकर तुम्हारी बात पे भरोषा कर लिया। लोग मेरे पुत्र के युवराज होने पे भी आपत्ति करते।  मैंने तुम्हे अत्यंत क्रोधित कर दिया था, इसलिए प्रणयकोपवश तुमने मुझसे जो अप्रिय वाणी कही उसका मुझे कुछ भी विचार नहीं है।  हम दोनों एक दुसरे के प्रिय हैं।  

ऐसा कह कर दुष्यंत ने अपनी प्राण-प्रिया को भोजन वस्त्र आदि से संतुष्ट कर दिया।

समय आने पर भरत का युवराज पद पर अभिषेक हुआ।  दूर दूर तक भरत का शासन चक्र प्रसिद्द हो गया।  वह सारे पृथ्वी का चक्रवर्ती सम्राट हुआ।

उन्होंने इंद्र के सामान बहुत सारे यज्ञ किये।

महर्षि कण्व ने उनसे गोवितत नमक अश्वमेघ यज्ञ कराया। उसमे यों तो बहुत सारे ब्राह्मणो को दक्षिणा दी गयी, मगर महृषि कण्व को सहस्त्र पद्म मुहरे दी गयी थी।  

भरत से हीं इस देश का नाम भारत पड़ा और वो भरतवंश का प्रवर्तक माना गया।   

           


  


Friday, October 23, 2015

दुष्यंत और शकुंतला की कहानी... Mahabharata Episode 19

जनमेजय ने कहा...

भगवन मैंने अब आपसे देवता-दानव के अंश से अवतरित होने की कथा सुन ली है । अब आपकी पूर्व सूचना के अनुसार कुरुवंश का वर्णन सुनना चाहता हूँ … 

वैशम्पायन जी कहते हैं ...

महाराज कुरुवंश* का प्रवर्तक था परम प्रतापशाली राजा दुष्यंत। समुद्र से घिरे और मल्लेछों के देश भी उसके अधीन थे। सभी लोग राज्याश्रय में निर्भय रहकर निष्काम धर्म का पालन करते थे।

दुष्यंत स्वयं विष्णु के सामान बलवान, सूर्य के सामान तेजस्वी, समुन्द्र के सामान अक्षोब्य और पृथ्वी के सामान क्षमाशील था। लोग प्रेम से उसका सम्मान करते और वह धर्म बुद्धि से सबका शाषण करता।

एक दिन वो अपनी पूरी सेना को लेकर एक गहन वन से गुजर रहे थे। उस गहन वन के पार हो जाने पर उन्हें एक आश्रम दिखा। वो आश्रम एक ऐसे उपवन में बना था जिसकी छटा देखतें हीं बनती थी। 

अग्निहोत्र की ज्वालायें प्रज्वालित हो रही थी, वालखिल्य आदि ऋषियों, जलाशयों, पुष्प, पक्षियों के मधुर ध्वनि के कारण उस जगह की शोभा अद्भुत हो रही थी। ब्राह्मण देवताओं की स्तुति कर रहे थे, सामने मालिनी नदी बह रही थी, राजा दुष्यंत को लगा मानो वो ब्रह्मलोक में हीं आ गए हो। 

यह सब देखते देखते राजा दुष्यंत वहां कश्यप गोत्रधारी मह्रिषी कण्व के आश्रम में आ पंहुचे।  उन्होंने मंत्रियों को द्वार के बहार हीं रोक दिया और अकेले हीं अंदर आयें।  आश्रम को सुना देख उन्होंने आवाज लगायी…  

" यहाँ कोई है !!! "

तभी अंदर से एक लक्ष्मी के सामान सुन्दर कन्या बाहर आयी और उसने आसान, पाद्य और अर्घ्य के द्वारा राजा का आतिथ्य करके उनका कुशल समाचार पुछा।  स्वागत -सत्कार के बाद कन्या ने तनिक मुस्करा कर उनसे कहा … 

"मैं आपकी और क्या सेवा करूँ ?"

राजा दुष्यंत ने कहा ...

मैं महर्षि कण्व के दर्शन करने  के लिए आया हूँ , वो अभी कहाँ हैं???   

उस सर्वांगसुंदरी, रूपवती कन्या ने कहा ... 

" महर्षि कण्व जंगल से फल फूल लाने गए हैं.। आप घडी दो घडी उनकी प्रतीक्षा करे, वो आते हीं होंगे, तब आप उनसे मिल सकेंगे …  "

ऋषि कन्या के रूप को देख राजा दुष्यंत उसपे मोहित हो गए और उन्होंने उससे पुछा …

हे सुंदरी ! तुम कौन हो, तुम्हारे पिता कौन है, और किसलिए तुम यहाँ आयी हो, तुमने मेरा मन मोहित कर लिया है… मैं तुम्हे जानना चाहता हूँ।  

ऋषिकन्या ने कहा ...

मैं महर्षि कण्व की पुत्री हूँ…

इस पर दुष्यंत ने कहा 

मगर महर्षि कण्व तो ब्रह्मचारी हैं, सूर्य अपने पथ से विचलित हो सकता है मगर महर्षि कण्व नहीं, फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम उनकी पुत्री हो।  

कन्या ने कहा...   

राजन ! एक ऋषि के पूछने पर मह्रिषी कण्व ने मेरे जन्म की कहानी सुनाई थी।  उससे मैं जान सकी हूँ कि जब परम प्रतापी विश्वामित्र अपनी घोर तपस्या में लीन थे, तो देवराज इंद्र ने मेनका को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा था, उन्ही दोनों के संसर्ग से मेरा जन्म हुआ था, माता मुझे वन में छोड़ कर चली गयी थी, तब शकुंतो (पक्षियों) ने मेरी रक्षा की थी इसलिए मेरा नाम शकुंतला पड़ा ।। बाद में मह्रिषी कण्व मुझे अपने आश्रम में ले आएं।  शरीर के जनक, रक्षक और अन्नदाता तीनो हीं पिता कहे जाते हैं, इस तरह महर्षि कण्व मेरे पिता हुए … 

इस पर राजा दुष्यंत ने कहा.…  

विश्वामित्र तो क्षत्रिय थे, अतः तुम क्षत्रिय हुई। इसलिए तुम मेरी पत्नी बन जाओ ! क्षत्रियों के लिए गन्धर्व विवाह सर्वश्रेष्ठ माना गया है , अतः तुम मुझे खुद हीं वरण कर लो।  

इस पर शकुंतला ने कहा.…  

मेरे पिता अभी यहाँ नहीं हैं, उन्हें यहाँ आने दीजिये, वो खुद हीं मुझे आपकी सेवा में समर्पित कर देंगे !!   

इस पर राजा दुष्यंत ने कहा...  

मैं चाहता हूँ तुम खुद हीं मेरा वरण कर लो, मनुष्य स्वयं हीं अपने सबसे बड़ा हितैषी है, तुम धर्म के अनुसार स्वयं हीं मुझे अपना दान कर दो…

यह सुनकर शकुंतला ने कहा.… 

अगर आप इसे धर्मानुकूल मानते हैं और मुझे स्वयं का दान करने का अधिकार हैं तो मेरी एक शर्त सुन लीजिये, कि मेरे बाद मेरा हीं पुत्र सम्राट बनेगा और मेरे जीवनकाल में हीं वो युवराज बन जाये !!! 

राजा दुष्यंत ने बिना कुछ सोचे समझे वैसी हीं प्रतिज्ञा कर ली और गन्धर्व विधि से उसका पाणिग्रहण कर लिया।  

दुष्यंत ने उसके बाद उससे समागम कर बार बार उसे यह विश्वास दिलाया कि.… 

" मैं तुम्हे लाने के लिए चतुरांगणी सेना भेजूंगा और शीघ्र से शीघ्र तुम्हे अपने महल में बुला लूँगा …

ऐसा बोल कर वो बिना महर्षि कण्व से मिले बिना सेना सहित वापस नगर लौट गए।  

रास्ते भर वो ये सोंचते रहें कि पता नहीं महर्षि कण्व यह सब जान कर न जाने क्या करेंगे … 

थोड़ी हीं देर में महर्षि कण्व आश्रम में आ पहुंचे।  लाज के मारे शकुंतला उनसे छिप गयी।  

महर्षि कण्व ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह जान लिया कि क्या हुआ था, उन्होंने शकुंतला को बुला कर कहा 

तुमने मुझसे छिप कर, एकांत में जो कार्य किया है वह धर्म के विरुद्ध नहीं है।  क्षत्रियों के लिए गन्धर्व विवाह शास्त्रोचित है, दुष्यंत एक उदार, परम प्रतापी और धर्मात्मा पुरुष है, उसके संयोग से एक बड़ा बलवान पुत्र पैदा होगा और वो सारी पृथ्वी का राजा होगा…   

       

   

  

    



    

Sunday, July 19, 2015

लाइन आ गया

कल वही हुआ जो अक्सर हमलोगों के साथ होते आया है। मोहल्ले के सारे घरों में बिजली थी, सिवाय हमारे घर के। और जो भी इस बात का मर्म जानतें हैं, उन्हें पता होगा यह कितना बैचैन कर देने वाला समय होता है!!!

और उस वक़्त आप किसी भी कीमत में अपने घर में बिजली चाहतें हैं!! हालांकी इस बार बिजली हमारे पुरे फेज की नहीं थी मगर फिर भी ऐसा फेज हमेशा हमारा वाला फेज हीं क्यों होता है यार!!

और ऐसे मौके पे मेरे अन्दर एक सवाल आया... 

"अरे हमलोगों के यहाँ दोनों फेज का लाइन नहीं है क्या !!! "

क्योंकी अक्सर हीं, कम से कम हमलोग इस तरह के शुद्ध सरकारी privileges से मरहूम तो नहीं हीं रहते थे कभी भी!!

तब इस फेज और बिजली के चक्कर में हमलोग बिजली ऑफिस गएँ।

इस छोटी सी यात्रा ने मुझे, बिजली के साथ विकास के नाते की जो एक अकादमिक बहस है, उसको थोडा अपने lived एक्सपीरियंस से जोड़ कर देखे जाने की एक अद्भुत प्रेरणा दी है।

बिजली का ज़िन्दगी में क्या महत्व है, इस बात को मैं थोड़ी ज्यादा गंभीरता से समझने का दावा रख सकता हूँ।

मैंने अपनी ज़िन्दगी में ठीक-ठाक समय, उम्र के करीब हर पड़ाव में, चाहे बचपन हो, किशोरावस्था हो या जवानी, ठीक-ठाक समय हर तरह के जगहों में बिताया है चाहे जहाँ … 

1. चौबिसों घंटे बिजली है!!!

2. अथवा जहाँ बिजली हैं हीं नहीं!!! मतलब पोल वोल भी नहीं है, और दूर-दूर तक पोल नहीं हैं!!! मतलब लालटेन, पेट्रोमेक्स, डीबरी वगैरह ज़िन्दगी का एक हिस्सा है। और एक ज़माने में यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ बिहार में ऐसे बड़े-बड़े क्षेत्र थे जहाँ या तो बिजली के पोल हीं नहीं थे अथवा थे भी तो उनमे उद्घाटन के बाद फिर जो ट्रांसफार्मर उड़ा तो कभी लाइन आयी हीं नहीं दुबारा। लालू ने ऐसे हीं लालटेन छाप से हंगामा नहीं मचा दिया था बिहार में !! 

3. जहाँ ठीक-ठाक बिजली रहती है, टाइम पे लोड शेडिंग होती है, जैसे 6-7 शाम या 8-10 सुबह।।

4.  या ऐसी जगह जहाँ बिजली ठीक-ठाक है, कोई नियम नहीं हैं, जा भी सकती है पर अक्सर रहती है पर कोई गारेन्टी नहीं है ,

5. या जहाँ 24 घंटे में 2-6 घंटे बिजली है, वैसा जैसे लगता है गुजरात था मोदी जी के पहले। क्योंकि उनको मैंने अक्सर ये कहते सुना कि कैसे उनके मुख्यमंत्रित्व काल के प्रारंभ में लोग कहा करते थे...

"मोदी जी कुछ करो या न करो , मगर रात में जब खाना खाने बैठे , तब तो तो बिजली हो, इतना तो कर दो"।।। 

तो वैसी जगह जहाँ बिजली ज्यादातर नदारद हीं रहती है।।।

इन सभी जगहों की एक अपनी दुनिया है।

पता नहीं कितने लोगों को ये थ्रिलिंग लगेगा कि जब मैच होना हो तो भारत जीते, या टीम में कौन खेल रहा है या किसको खेलना चाहिए से परे भी एक चिंता है और वो है… 

यार!! मैच के समय कहीं लाइन ना काट जाए....!!


एक दर्दनाक अनुभव जो याद है, वो है हीरो कप का सेमी फाइनल। तेंदुलकर का वो ओवर!! गया में थे हमलोग उस वक़्त। ए पी कॉलोनी मे।   

एक अलग मुसीबत थी। लाइन थी, मगर हमलोगों के घर या फेज में वोल्टेज हीं इतना ज्यादा था कि आप कोई इलेक्ट्रिक एप्लायंसेज यहाँ तक की बल्ब भी नहीं जला सकते थे!!

आखिरी ओवर, वो क्लाइमेक्स वाला, आते-आते आखिरकार स्टेबलाइजर ने जवाब दे दिया, और फाइनली टीवी बंद हो गया।  

दिन होता तो कहीं दूसरों के घर भाग जाते पर घर में जेल कि तरह सूर्योदय से सूर्यास्त वाला नीयम था, और रात के दस-वस  बज रहे होंगे!!  

रेडियो का खोजइया शुरू हुआ !! और अगर खराब निकला तो अलग डांट !!

देखिये और जगहों में मतलब नॉन ऑफिसर कॉलोनी वाले मकानो में लाइन है, उनका वोल्टेज ठीक है, हमलोग अँधेरे में, मोमबत्ती की रोशनी को आप अँधेरा हीं कहेंगे, में रेडियो पे हैं और वो भी एक जमाने के बाद खुला है और जल्दी-जल्दी में स्टेशन पकड़वा लेना भी मज़ाक नहीं हैं।

अब यहाँ जिनके पास टीवी है, वो लाइव देख रहें हैं, बीट होता और वो झट से देख लेते की बीट हो गया, और हल्ला शुरू होता और हम तो कमेंटेटर के कमेंट के मोहताज है!! 

अगल बगल हल्ला हो जाता, जैसे हीं बीट होता, टीवी पे लाइव दिखायी जा रही थी, हमें कमेन्ट्री और आस -पास के हल्लो में से दोनों जगहों से इनफार्मेशन मिल रही थी। 

तेंदुलकर ने 6 शानदार बाल डाले।  आपको याद हो तो मैकमिलन खड़ा रह गया दुसरे छोड़ पे और भारत जीत गया। खुशी की बात थी मगर हमारा हार्ट फेल नहीं हुआ, ये काम आश्चर्य भी नहीं है।

या जब एक बार घाटशिला में जब ट्रांसफार्मर उड़ गया था, तो करीब दो महीने तक एक शहर में हम बिना लाइन के थे। शाम को जब हमलोग क्रिकेट खेल के वापस घर आतें तो थे तो हमे पता था कि लाइन नहीं आएगी। 

मतलब अब ऐसा नहीं था कि आप शाम में घर लौट के आएं और लाइन कटा हुआ है बोलके आपको और थोड़ी देर बाहर आस पास में हीं कॉलोनी में थोड़ा और आवारागर्दी करने का मौका मिल गया हो। 

ऐसा नहीं होगा क्योंकि बिजली तो आनी हीं नहीं है, इस कारण जल्दी लौटना बल्कि अब एक जरूरत थी। घर आओ!! लालटेन वालटेन का हाल देखो !! जी सर लालटेन!!  

लालु यादव का चुनाव चिन्ह गरीबी की नहीं, प्रतिष्ठा का सिंबल था वो। अपना अलग लालटेन होना टेबल लैंप होने से ज्यादा बड़ी बात थी।   

शुरू में बहुत हल्ला हुआ। तरह तरह के अफवाह उड़े !! 

कल बन जाएगा, आज टाटा से देख के गया है, HCL वाला लोग दे रहा है से लेकर के TV टावर वाला दे रहा है, ये-वो सब कुछ !! बस PIL का वैसा ज़माना नहीं था, मेरे ख़याल से 94 ईश्वी की बात  है, नहीं तो हाई कोर्ट दे रहा है वाला हल्ला भी हो जाता!! 

खैर कुछ नहीं हुआ और 20-25 दिनों के बाद सभी लोग हार गएँ। यहाँ तक की अफवाह फैलाने वाले भी हार कर चुप हो गएँ, जो बिजली ना होने के कारण जो अक्सर हीं एक उदासी छाई रहती थी वो उदासी भी लोग भूल गए!!

मतलब लोग भूल गएँ की बिजली भी कोई चीज़ होती है. सचमुच इंसानो के एडजस्ट और एडाप्ट करने के क्षमता बड़ी आश्चयर्जनक और अविश्वासनीय है!!

इन्वर्टर का तो सवाल हीं बेकार है, घर में थी भी नहीं और जिनकी थी भी, बिजली तो पिछले एक महीने से नहीं थी, वो कब के बैठ चुके थे …

और घाटशिला शहर, पता नहीं अभी कैसा है, उस वक़्त तीन हिस्सों में बटा था। 

एक था माइनिंग कॉपर कंपनी वाला इलाका, जहाँ २४ घंटे बिजली-पानी थी, दूसरा बाजार इलाका और तीसरा फुलडूँगरी; जहाँ पे कोर्ट और ब्लॉक ऑफिस थी, सरकारी ऑफिस वाला इलाका मतलब, जहाँ अफसर कॉलोनी थी, जहाँ हमलोग रहते थे, और ट्रांसफार्मर सिर्फ फुलडूँगरी इलाके का, जहाँ हमारा घर था, का उडा था. वैसे तो फुलडूँगरी बड़ा इलाका था, मगर बाजार वाला इलाका नहीं था.

अब देखिये चूंकि ज्यादातर इलाका जो इस उड़े हुए ट्रांसफार्मर की सीमा क्षेत्र में आता था, वो ऑफिस वाले थे, जहाँ दिन में लाइट की जरूरत थी नहीं, उस वक़्त टाइप राइटर का ज़माना था, प्रिंट आउट का नहीं !! पता नहीं ज़ेरॉक्स-वेरोक्स कैसे होता था, या पता नहीं लोग कार्बोन कॉपी या अठारहवीं सदी में पूरी तरह से लौट कर "नक़ल" पे उतर आएं थे, याद नहीं अब!! बात असली वो नहीं है यहां। 

बाजार का उड़ता तो दूकान वाले लोग या जनरल मोहल्ले वाले भी खटा-खट चंदा इकठ्ठा करके सामूहिक रिश्वतखोरी के लिए पैसा जुगाड़ कर लेते!! मगर यहाँ तो ज्यादातर सरकारी ऑफिस वाले थे, अब वहां पे जो कुछ एक लोकल पब्लिक थी भी वो अब कैसे मतलब इन सरकारी अधिकारियों से चंदा मांगे !!

मुसीबत बड़ी थी।  

क्रमशः !!! 

Saturday, July 18, 2015

मतलब से मतलब

क्या हमारी कोई भाषा है। 
क्या ये भाषा यहाँ पर मेरी होनी चाहिए थी।
क्या हमरी लिखने से उसका मतलब मेरी हो जाता।
क्या आँखों की भाषा होती है 
और अगर होती है
तो क्या उसका भी व्याकरण होता है।
उसका पाणिनि कौन है ?

क्या बकवास है और क्या नहीं
इसका अंतर क्या मतलब से निकलता है।
क्या मतलब के दो मतलब नहीं होते ।
जब हम किसी बात का मतलब निकालते हैं
तो उस वक़्त मतलब का क्या मतलब होता है।
क्या यह एक कविता है जो हम गुनगुना नहीं सकते।

‎चूहा

तुम्हारे जो पर थे वो कल कुतर दिए हैं मैंने 
फुदकने के अलावा तुम्हारे पास अब रखा क्या है। 

आसमान में तो उड़ सकते नहीं हो तुम अब 
और जमीन पे चलना तो सीखा नहीं है तुमने ।।

"य पश्यति सः पश्यति"

"य पश्यति सः पश्यति"
जो ये देखता है वह देखता है ।

देखने का मतलब क्या होता है ।
तुम कुर्सी देखते हो 
या तख्ते-ताउस देखते हो।

तुम राम देखते हो
या राजा राम देखते हो ।
तुम राम का नाम देखते हो
या उसका काम भी देखते हो ।

टीवी में भी हम देखते हैं
और टीवी को भी देखते हैं।
अगर तुम आँखों से देखते हो तो हम पैरो से चलते हैं। 

फिर कहीं पहुँचने का क्या मतलब हुआ
गाडी खरीदने का फिर क्या मतलब हुआ ।

देख लो

पहले बारिश होती थी
और हम बहती हुई नालियों में कागज की कश्ती चलाते थे
अब ग्रीन हो गए हैं
और रेनी डे में एनएफएस की सड़को में फेरारी चलाते हैं.

पहले हम बच्चे थे
और बोर हो जाने पर बैठकर ला मिजरेबल पढ़ते थे
अब हम बड़े हो गए हैं
और बोर होकर फेसबुक में बैठकर कविता लिखते हैं.

कोई बात नहीं यह कि
जो मैं ये कहता रहता हूँ कि सब बदल गया है
कहने से होता क्या है
जो बदलना है वो तो वैसे भी बदल हीं जाता है.

देखो मैंने बोल हीं दिया
और अपने सोंच को ज़माने के सामने खोल हीं दिया
तुम समझो या नासमझो
तुम्हारे एक सवाल का जवाब तो मैंने दे हीं दिया.


क्रिकेट मैच

शोएब अख्तर के करियर की पहली गेंद थी वो सचिन को। तेंदुलकर बस उतरा हीं था।  मुझे याद है। मैं शर्मा अंकल के यहाँ था। क्रिकेट खेलते तो थे हीं और सब लोगों की तरह देखता भी था। पांचवी में पढता था तब।

मतलब टीवी में क्रिकेट देखने की समझ आ गयी थी।

घर में टीवी थी मगर ब्लैक एंड वाइट। उनके यहाँ थी कलर टीवी। और कलर टीवी में मैच देखने के लालच में उनके यहाँ चला आया था।

जो लोग जानते हैं, वो तो जानते हीं है कि क्या हुआ। उस पहली हीं गेंद पे सचिन तेंदुलकर क्लीन बोल्ड !!

सब लोग सन्न रह गए। स्टेडियम और घर दोनो जगह,एक बार में सन्नाटा छा गया। बच्चा था, एक बात याद आयी तो, मैं थोडा हल्का मुस्कुरा पड़ा।

थोड़ी देर के बाद शर्मा अंकल भी हँसे और अब पता है की वो तब अपने दुःख को छिपा रहे थे, लेकिन उस वक़्त लगा कि शायद वो सही में हंस रहे हैं। 

उन्होंने चिंटू भैया को, जो छठे क्लास में पढ़ते थे, उनको चिढ़ाना शुरू कर दिया...

अरे कभी नहीं जीत पायेंगे ये पाकिस्तान टीम से...

और मैं भी बोल पड़ा...

अल्ताफ भैया भी बोले थे, देखना शोएब पहले बाल पे ले लेगा तेंदुलकर को...

मेरी बात के बाद मुझे लगा थोडा और सन्नाटा छा गया...

तेंदुलकर आउट हो चूका था। माहौल आलरेडी बहुत ग़मगीन था। और तभी शायद खुदा के खैर से हीं, उसी वक़्त दीदी आ गयी बुलाने। और वही लाइन बोली जिसे सुनकर अक्सर सारे हिंदुस्तान के बच्चे दहशत में आ जाते हैं...

चलो पापा बुला रहे हैं...

मैं बाहर निकला और हम घर की तरफ चल दिए।

बिलकुल घर के पास पंहुच कर याद आया क़ि, मामु ने जो एक टोपी दी थी मुझे, जो मैं ले के आया था, वो वहीँ कुर्सी पे छूट गयी थी।

वही लेने के लिए लौटा कि दरवाजे पे  सुनता हूँ, पिंटू भैया, जो दसवीं में थे शायद उस वक़्त, जोर-जोर से बोल रहें थे...

साला मियन्डी !!! बच्चा-बच्चा कट्टर होता है इन लोगों का...देखो दो बित्ता का बच्चा का टोपी देखो !!!

आंटी बोली...

अरे जा के टोपिया दे आओ उसका...

हम नहीं छुएंगे टोपी उसका.. जला दो साला टोपी उसका...

मुझे लगा  पिंटू भैया कहीं सही में ना जला दे टोपी कि मैने घंटी बजाने के लिए हाँथ बढ़ाया। तभी आंटी फिर बोली...

अरे चिंटू विकेटवा से उठा के उधर कोना में रख दो..अपने आके ले जाएगा...

मैंने घंटी बजायी। दरवाजा खुला और एक बार फिर सन्नाटा छा गया ...

अब अंकल बोले…

अरे आओ बैठो राजा, देखो दो और विकेट गिर गया... केतनो कर लो चिंटू ..नहीं जीत पाओगे पाकिस्तान से!!

पापा बुला रहे हैं अंकल। टोपी छूट गयी थी... मामू लाये थे लखनऊ से...

मैं लौट गया। दिल थोडा भारी लग रहा था। पता नहीं उन बातों को मैं समझा इस कारण या इसलिए कि दो विकेट और गिर गए थे इस कारण...

घर लौटा, तो देखा तो खैर स्कोर वही था...

वैसे सारे बैट्समैन तो जा हीं चुके थे। टीम आल आउट के करीब थी और पापा भी जोर जोर से बोल रहे थे, लेकिन हंस कर नहीं बल्कि थोडा खीज कर....

बुजदिल साले सिर्फ बांग्लादेश के सामने शेर हैं.. तेंदुलकर गया नहीं कि सब बर्बाद। नाम हँसा के रख देतें हैं ये लोग हमेशा। बंद करो टीवी... और कहाँ गए थे राजा... खबरदार जो कहीं दोपहर में बाहर गए हो...वहीँ से मारते मारते लाएंगे...अरे चाय बनाओ...

ख़ीज गुस्से में बदल चुका था... अम्मी चाय बनाने के लिए चली गयी और मैंने कोने से फिर टीवी की और देखा। 

अज़हरुद्दीन अभी तक टिका हुआ था। मुझे उस पर भरोसा था...लेकिन वो भी गया 205 पे... और 212 में इंडिया आल आउट...

Sunday, June 28, 2015

कर्ण या अभिमन्यु Episode 18

वैशम्पायन जी कहते हैं

जनमेजय अब मैं तुम्हे यह बताता हूँ किन किन देवता और दानवों ने किन किन मन्युष्यो के रूप में जन्म लिया था।

दानवराज विप्रचित्ति जरासंध और हिरण्यकश्यपु शिशुपाल हुआ था।संहल्लाद शल्य और अनुहल्लाद धृतकेतु हुआ था। शिबि दैत्य द्रुम राजा, वाष्कल दैत्य भगदत्त और कालनेमि ने कंश का रूप धारण किया था।

भरद्वाज मुनि के यहाँ बृहस्पति जी के अंश से द्रोणाचार्य अवतरित हुए थे।

वसिष्ठ ऋषि के श्राप से और इंद्र की आज्ञा से आठो वसु गंगा के कोख से राजा शांतनु के यहाँ हुए थे, जिसमे सबसे छोटे थे भीष्म।

अरिष्टा का पुत्र हंस नामक गंधर्वराज, धृतराष्ट के रूप में और उसका छोटा भाई पाण्डु के रूप में, तो सूर्य के अंश धर्म से हीं विदुर पैदा हुए थे। मति का जन्म राजा सुबल की पुत्री गंधारी के रूप में हुआ था। कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और धृति का जन्म हुआ था।

धर्मराज के अंश से युद्धिष्ठर और वायु, इन्द्र तथा अश्विनी कुमारों के अंश से क्रमशः भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव हुए थे।

चन्द्रमा का पुत्र वर्चा अभिमन्यु के रूप में आया था। उसके अवतार के समय चन्द्रमा ने देवताओं से कहा था

मैं अपने प्राण प्यारे पुत्र को नहीं भेजना चाहता हूँ पर इस काम से भी पीछे नहीं हटना चाहता हूँ। इसलिए मेरा बेटा मनुष्य बनेगा तो जरूर पर वो वहां बहुत दिनों तक नहीं रहेगा। वो नर के अवतार अर्जुन के पुत्र के रूप में जन्म लेगा और नर और नारायण के ना रहने पर वो चक्रव्यूह तोड़कर घमासान युद्ध करेगा और बड़े बड़े महारथियों को चकित कर देगा। इसका पुत्र हीं कुरुवंश का वंशधर होगा।

महराज जनमेजय आपके पिता परीक्षित जिन्हें नारायण के अवतार कृष्ण ने जन्म के समय मृत होने के बावज़ूद जीवित कर दिया था उन्ही के पुत्र थे ।

अग्नि के अंश से धृष्टद्युम्न और और एक राक्षस के अंश से शिखंडी का जन्म हुआ था।

द्वापर युग से शकुनि का और कलयुग के अंश से दुर्योधन का जन्म हुआ था।

वासुदेवजी के पिता शूरसेन की एक अनुपम रूपवती कन्या थी जिसका नाम था पृथा। शूरसेन जी ने अग्नि के सामने प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपनी पहली संतान अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतिभोज को दे दूंगा। पृथा उनकी सबसे बड़ी संतान थी तो उन्होंने उसे कुंतिभोज को दे दिया।

वो बचपन से हीं राजा कुंतिभोज के यहाँ रहती थी। एक बार दुर्वाशा ऋषि उनके यहाँ आये। पृथा ने उनकी खूब सेवा की जिससे प्रसन्न होकर दुर्वाशा ऋषि ने उन्हें एक मंत्र दिया, जिससे वो किसी भी देवता को कभी भी पुत्र के लिए बुला सकती थी।

एक दिन कौतुहल में उसने सूर्य देव का आह्वाहन किया। भगवान सूर्य ने तुरंत प्रकट होकर गर्भस्थापन किया।

एक सूर्य के सामान बड़ा हीं तेजस्वी, कवच और कुंडल धारण किये सर्वांग सुन्दर बालक जन्मा। कुंवारी होने के कारण लोक लाज के भय से पृथा ने उस पुत्र को एक डब्बे में बंद करके नदी में बहा दिया था। जो अधिरथ सारथि  को मिला। जिसे उसने अपनी संतानहीन पत्नी राधा के पास ले जाकर पुत्र बना लिया और उसका नाम वसुषेण रखा।

बाद में वही कर्ण के नाम से प्रशिद्ध हुआ।

महाबली शेषनाग जी बलराम के रूप में आये तो स्वयं सनातन पुरुष नारायण हीं कृष्ण के रूप में आएं। सनत्कुमार जी प्रद्युम्न के रूप में आये थे और लक्ष्मी ने राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणी के रूप में जन्म लिया था।

Friday, June 26, 2015

महाभारत Episode 17

जनमेजय ने कहा
"भगवन! मैं देवता, दानव, गन्धर्व, अप्सरा, मनुष्य, यक्ष, राक्षस और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति सुनना चाहता हूँ। आप कृपा कर के एकदम प्रारम्भ से हीं यथावत वर्णन कीजिये...."
वैशम्पायन जी ने कहा....
अच्छा मैं स्वयंप्रकाश भगवान् को प्रणाम करके देवता आदि की उत्पत्ति और नाश की कथा कहता हूँ....
ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलत्स्य, पुलह और क्रतु को तो तुम जानते हीं होगे???? मरीचि के पुत्र कश्यप थे और उन्ही से प्रजा का जन्म हुआ है...*
ब्रह्मा जी के दांये अंगूठे से दक्ष और बाएं अंगूठे से उनकी पत्नी का जन्म हुआ था।
दक्ष प्रजापति को अपनी पत्नी से पांच सौ पुत्रियां पैदा हुई। पुत्रों का नाश हो जाने के कारण उन्होंने अपनी पुत्रियों का विवाह इस शर्त पे किया कि पहले पुत्र उन्हें मिल जाए।
उन्होंने दस कन्यायों का विवाह धर्मं से किया, सताईस का चँद्रमा से (सताईस नक्षत्र चन्द्रमा की पत्नियां हैं जिनसे हमे समय का पता चलता है), और तेरह का कश्यप से किया।
दक्ष के तेरह कन्यायों के नाम थे अदिति (जिनके बारह आदित्य हुए जिनकी गिनती देवताओं में होती है),दिति (जिनके पुत्र हुए हिरण्यकश्यपु, जिसके पांच पुत्रो में एक था प्रह्लाद, जिनके पुत्र हुए विरोचन और उनके पुत्र थे बली और बली का पुत्र था, बाणासुर जो महादेव शिव का महान सेवक था और महाकाल के नाम से प्रसिद्द हुआ), दनु (जिसका पुत्र विप्रचित्ति बड़ा प्रसिद्द यशश्वी और राजा था), सिंहिका (जिसका पुत्र था राहु), क्रूरा (जिससे औरो के अलावा क्रोधवश नामक एक गण भी हुआ), ........कपिला, मुनि और कद्रू जिससे सर्पों की उत्पत्ति हुई।
मह्रिषी भृगु ब्रह्मा जी के ह्रदय से पैदा हुए थे, और उनसे असुरो के पुरोहित शुक्राचार्य का जन्म हुआ।
शुक्राचार्य के अतिरिक्त च्वयन भी उनके पुत्र हुए। वो अपनी माता की रक्षा के लिए उनके गर्भ से निकल आये थे। उनकी पत्नी थी का नाम था आरुणि। उनकी जांघ से और्व का जन्म हुआ था, जिससे ऋचीक, फिर उनसे जमदग्नि हुए। इन्ही जमदग्नि ऋषि के सबसे छोटे पुत्र थे परशुराम।
ब्रह्मा जी के पुत्र मनु और मनु के प्रजापति और प्रजापति के आठ वसु हुए। ब्रह्मा जी के दो पुत्र और भी थे धाता और विधाता। वो मनु के साथ रहते हैं। लक्ष्मी उनकी बहन है।
शुक्र की पुत्री देवी वरुण की पत्नी बनी उनके पुत्र का नाम बल हुआ और पुत्री का सूरा।
अदिति के बारह पुत्र, आठ वसु, ग्यारह रूद्र, प्रजापति और वषट्कार ये तैंतीस मुख्या देवता हुए।  
सूर्य की पत्नी बड़वा (घोड़ी) से अश्वनिकुमारों का जन्मा हुआ।
P.S. ये बहुत हीं clumsy अध्याय है और बहुत confusing भी है... कुछ मुख्य किरदार जिनको मैं थोडा trace कर पाया यहाँ लिखा है....
NEXT EPISODE:
अब मैं तुम्हे बताता हूँ किन किन देवताओं और किन किन असुरों ने किस किस मनुष्य के रूप में अवतार लिया था। दानवराज विप्रचित्ति जरासंध और हिरण्यकश्यपु शिशुपाल हुआ था......

Thursday, June 25, 2015

असल आरम्भ Mahabharta Episode 16

वैशम्पायनजी कहते हैं.... 
जनमेजय! जमदंग्निनंदन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन किया।

क्षत्रियों का संहार हो जाने के बाद क्षत्रियों की वंशरक्षा तपस्वी, त्यागी, संयमी ब्राह्मणों के द्वारा हुई। फिर कुछ दिनों के बाद पृथ्वी में क्षत्रिय राज्य स्थापित हो गया।*

क्षत्रियों के धर्मपूर्वक प्रजा-पालन के करने से ब्राह्मण आदि सभी वर्ण सुखी हो गए।
समय पर वर्षा होती।बचपन में कोई नहीं मरता और युवावस्था आने तक लोगो में यौन आचार का ज्ञान नहीं होता।* क्षत्रिय बड़े बड़े यज्ञ करते और ब्राह्मणों को खूब दक्षिणा मिलती।

उस समय धन ले कर कोई शास्त्रो का अध्यापन नहीं करता और न हीं शुद्रो की उपस्थिति में कोई वेदोच्चार हीं करता।*

वैश्य दूसरों से बैलों के द्वारा खेती का काम करते। स्वयम् बैलों के कंधे पर जुआ नहीं रखते।* कमजोर और बूढ़े बैलों का भी ध्यान रखते। सभी लोग अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार काम करते। यहाँ तक की लता और वृक्ष भी अपने ऋतुकाल में हीं फलते-फूलते।
ये सतयुग था!!

जिस समय यह आनंद छा रहा था, क्षत्रियों में राक्षस उत्पन्न होने लगे।

देवताओं ने युद्ध में उन राक्षसों को बार-बार हराया और उन्हें उनके ऐश्वर्य से च्युत (मरहूम) कर दिया।*
पर राक्षस ना केवल मनुष्य बल्कि बैलों, घोड़ो, गधो, ऊँटों, भैंसो और हिरणों में भी पैदा होने लगे। पृथ्वी उनके भार से त्रस्त हो गयी और उसका वजन इतना बढ़ गया की कच्छप राज और शेषनाग भी उनका भार उठाने में असमर्थ हो गए।

ऐसे में पृथ्वी ब्रह्मा जी के पास आयी। ब्रह्मा जी ने शरणागत पृथ्वी से कहा...

"देवी! तू जिस कार्य के लिए मेरे पास आयी हो मैं उसके लिए देवताओं को नियुक्त करूंगा।"

जिसके बाद ब्रह्मा जी ने देवताओं, अप्सराओं और गंधर्वो को बुलाया और कहा....

"तुमलोग पृथ्वी का भार उठाने के लिए अपने-अपने अंशो से अलग अलग पृथ्वी पर अवतार लो।" 

इसके बाद सारे लोग नारायण के पास गए और इंद्र ने उन्हें धरती पर अवतार लेने के लिए प्रार्थना की।
भगवान् ने तथास्तु कह कर प्रार्थना स्वीकार की। फिर विष्णु* ने इन्द्र के साथ अवतार ग्रहण के विषय में परामर्श किया और सभी अपने अपने लोक वापस लौट गए।*

अब देवता लोग अपने अपने अंश से पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करने लगे और असुरों का संहार करने लगे।


NEXT EPISODE
जनमेजय ने कहा
"भगवन! मैं देवता, दानव, गन्धर्व, अप्सरा, मनुष्य, यक्ष, राक्षस और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति सुनना चाहता हूँ। आप कृपा कर के एकदम प्रारम्भ से हीं यथावत वर्णन कीजिये...."

Sunday, June 21, 2015

अनुभव बस की पॉलिटिक्स का, NUSRL I

क्या मैं बुद्धिस्ट बनूं ??
कुछ दिन पहले, मतलब बात बस परसो की है .. मैं उस दिन अपने यूनिवर्सिटी बस में सवार होने वाला पहला "ऑफिसर" क्लास था।
तो उस वक़्त उस बस में "दीदियां" और एक स्टाफ बैठे थे। स्टाफ सबसे आगे की सीट पे बैठ था, उस सीट पर जिस सीट पे पिछले कुछ दिनों से मैं बैठ रहा था। और दीदियां भी आगे वाली सीटों पे हीं बैठी थी।
मुझे देख कर वो थोडा सकुचाया या कहे तो कुनमुनाया मगर हिल के भी नहीं हिला। मतलब इतना भी नहीं हिला कि हम उधर बढ़ते या उसको मना कर सकते थे कि... अरे नहीं नहीं  बैठो।
खैर दीदी लोगों को भी लगा कि शायद ये अन्याय है, तो वो भी थोडा बहुत हिली मगर तब तक मैं पीछे चला गया था क्योंकी मुझे किसी के साथ बैठना ज्यादा मुश्किल लगता है, बनिष्पत के पीछे बैठने के...
एक बार पहले भी मैंने आगे बैठना छोड़ा था, क्योंकि लोग आगे बैठने पे, आपके साथ में आकर बैठ जाएंगे, ना कि पीछे वाली खाली सीट पे जाने की जगह। पता नहीं ऐसा क्या है आगे वाली सीटों में।
तो खैर मैं पीछे की सीट पर आकर बैठ गया।
फिर बस आगे बढ़ी। और रेडियम रोड के स्टॉप पर आ के रुकी जहाँ पर आजकल संदीप अलिक और हीरल चढतीं हैं।
पहले बस फिरायालाल तक जाती थी उनके लिए, मगर अभी कुछ दिनों से एक मज़ेदार कारण से स्टाफ बस बंद है, ये तो सिर्फ दीदी लोगों को लाने के लिए चलती है क्योंकी इतने कम वेतन में कौन काम करेगा। या पता नहीं जो भी हो स्टाफ बस बंद है, मगर उसी रूट पे वही बस अभी 'ऑफिशियली' चल रही है दीदी लोगो को लाने के लिए। तो यही वो बस है।
जैसे हीं वहां पर बस रुकी, बस के अंदर हड़कंप मच गया। सबसे आगे बैठा हुआ वो लड़का बिलकुल कूद कर आगे जा के बोनेट पे बैठ गया। दीदियां भी जल्दी जल्दी एक एक दो दो सीट पीछे हो गयीं और ये सब कहे तो बिजली की तेज गति से हो गया।
संदीप, अलिक वगेरह को शायद एहसास भी ना हुआ हो कि अंदर एक छण के लिए कैसा हड़कंप मचा था।
वो शांति से अंदर आये, मुझे फर्स्ट सीट पे ना पाकर मुझे तलाश किया, मैं पीछे पाया गया। हम मुस्कराये और वो अपने सेकंड नंबर सीट पे जा के बैठ गए। हीरल भी अपने फर्स्ट या सेकंड, राईट हैण्ड वाली साइड के, सीट पे बैठ गयी ।बस चल पडी। 
इधर मैं एक सोंच में पड़ गया।
मुझे एक बात याद आयी जो अर्पिता ने मुझे बतायी थी कि कैसे गार्ड फीमेल फैकल्टी को सैलूट नहीं करते थे, जो बात उसे प्रिया विजय मैम ने बताई थी।
तो मैं कन्फ्यूज्ड हूँ । क्या ये कूल है या कि ये अलार्मिंग सिचुएशन है।
मतलब कही ऐसा तो नहीं कि मैं अपना "वजन" खो रहा हूँ। आखिर कोई हिला क्यों नहीं ??
जैसा की मुझे याद है कि मेरा एक नेतरहाट फ्रेंड  अक्सर मुझसे कहता था कि अपने अंदर थोडा वजन लाओ, नहीं वो बोलता था "वेट" लाओ और मैं बहुत भरोसे से कह सकता हूँ कि उसका मतलब शारीरिक नहीं था।
जैसे की अब फर्स्ट इयर को छोड़कर कोई भी  स्टूडेंट मुझे देख कर बस में सीट नहीं छोड़ता, बल्कि अब लोग कहते हैं कि कोई फायदा नहीं "सर" बैठेंगे नहीं।
जैसे मैं गार्ड को मना करता हूँ मुझे सलूट करने से मगर अभी तक वो करता है। मना करता हूँ फोर्थ क्लास स्टाफ को मुझे देख कर कुर्सी से खड़े होने पे। अभी तक होते हैं शायद ...
या स्टूडेंट के खड़े होने पर मेरे क्लास के अंदर आने पे।
यहाँ पे एक और इंटरेस्टिंग बात है, और उम्मीद करता हूँ लिखने से बैच अपने ऊपर पर्सनली न ले ले पर फिर भी यहाँ स्टूडेंट्स ("बच्चे") किसी टीचर या गेस्ट के क्लास में आने पड़ खड़े हो जाते हैं शायद ?? पर तिर्की जी के आने पे नहीं। क्यों ?? एक बार मैंने फोर्थ इयर को इस साल सेक्शन A में टोक दिया इस बार। पता नहीं वो क्या सोचते होंगे??
मेरे आने पे तो लोग अब हिलते भी नहीं हैं मतलब मेरे क्लास के अंदर आने पर।
तो क्या मुझे गर्व होना चाहिए क्योंकि यही तो मैं बोलता था या डरना चाहिए जैसा कुछ लोगों ने कहा कि सवाल डिग्निटी का है। क्या कहना है उनका ....
यहाँ पे आती है बुद्धिस्ट वाली बात!! याद है बुद्ध को क्या ज्ञान मिला था कुँए में पानी भरने वाली महिलाओं से....
की वीणा के तार को इतना भी ना खीचों की वो टूट जाए और इतना भी ना ढीला रखो की वो बजे हीं नहीं।
क्या मैंने तार ढीला छोड़ दिया है ??
बॉस मैं बोलता हूँ भाड़ में गया डिग्निटी
...हमसे ना हो पायेगा ।।। 
P.S. सर, भैया और दीदियां !!!
"दीदियां" बस में बैठने वाली पहली सवारियों में हैं। अक्सर मुझसे पहले बस में PA राजेश सर और अलोक सर वगेरह चढ़ चुके होते थे, उसी कारण हीं शायद "दीदियां" मुझे पीछे की सीटो में हीं दिखती थी। मगर आज वो आगे की सीटों में थी।
दरअसल ये बस "ऑफिशियली" अब सिर्फ उन्ही लोगों को लाने के लिए हीं चल रही है, पहले ये स्टाफ बस थी, अब अगर कोई स्टाफ चढ़ जाए रास्ते में तो ठीक है, जैसे मैं चढ़ सकता हूँ क्योंकि मैं रास्ते में हूँ मगर अब ये स्टाफ बस है नहीं।
वैसे ये दीदियां यूनिवर्सिटी के जैनिटर स्टाफ हैं, जो यहाँ अमानवीय भत्ते पर हर दिन यूनिवर्सिटी के हॉस्टल को साफ़ करने के लिये आती हैं।
मैंने ज्यादातर लोगों को उन्हें दीदियां कहते सुना है। किसी को उन्हें भाभी कहते नहीं सुना। ये और बात है उनके "रैंक" के लोगों को भैया कह के हीं बुलाया जाता है जैसे तिर्की भैया या राजेश को भी शायद जिनको मैं (हंसी में) राजेश स्लेव कहता था।
मगर कोई भी PA राजेश सर को भैया नहीं कहता। मुझे लगता है सभी उनको सर कहते हैं।
वैसे यह बात जानना ज्यादा मजेदार होगा अगर माइक्रो लेवल पे यह जानने की कोशिश करें कि कहाँ पर आकर सर कहना शुरू हो जाता है यहाँ। मतलब आप भैया से सर कब बन जाते हैं ।
तो खैर उस दिन सबसे आगे की सीट पर भी कोई उसी फोर्थ ग्रेड रैंक का, जो पता नहीं अभी कैडर में है कि नहीं, बैठा था। उसका नाम मैं अक्सर भूल जाता हूँ।
मतलब वो उतना पॉपुलर स्टाफ नहीं है जैसे माली राजेश या तिर्की सर।
तिर्की जी को बच्चे सर बोलते हैं ?? या राजेश को?? मुझे याद है मैं राजेश को जिसको मैं मजाक में PA राजेश से स्लेव राजेश कह के डिस्टिंगइश् करता था, स्लेव क्योंकि उसकी ड्यूटी उस कैंपस में फैकल्टी के लोगों के लिए हीं फिक्स थी। जो की फैकल्टी के डिमांड पे लगाई गई थी, उनको भी मैं सर हीं बोलता था।
उसका नंबर publicly साहू सर वाले केबिन में लिखा हुआ था। मैंने भी वहां से फ़ोन लगाकर कई एक बार उनसे चाय मगवाई है और जहाँ तक मुझे याद है,  मैंने उन्हें हमेशा सर ही बोला है,
ये सर भी बड़ी मज़ेदार चीज़ है। मैं मिधा सर या बारा सर हीं बोलता हूँ।
वैसे लोग यहाँ खुद को भी सर बोलते हैं जैसे उदाहरण दूं तो लोग बोलेंगे, जैसे कि अगर मुझे  (हालाँकि नहीं बोलता हूँ) किसी स्टूडेंट को बोलना हो कि वो तिर्की सर को बोले कि मैं उन्हें बुला रहा हूँ तो मैं बोलूंगा
"तिर्की जी को बोलना निमेष "सर" बुला रहे हैं.... "

Friday, June 5, 2015

लाजवाब मैं खुद से हो गया

जो मैं गया दिल दुखाने तेरा तो दर्द मुझको हो गया
आपकी आँखों का अनदेखा देखकर
चेहरा मैं अपना भूल गया

आया था आपकी बेवफाई की शिकायत करने मैं आपसे
जो हाल बताया आपने इश्क़ के आज का तो लाजवाब मैं खुद से हो गया

Friday, January 16, 2015

जो इसमें नहीं है वो और कहीं नहीं है.… Mahabharata Episode 15

शौनक जी ने तब कहा........

सुतनन्दन! आपने कहा था कि इस सर्प-सत्र के अंत में जनमेजय कि प्रार्थना पे, भगवान श्री कृष्णद्वैपावन ने अपने शिष्य वैशम्पायन जी को यह आज्ञा दी थी कि, तुम इस महाभारत की कथा इन्हे सुनाओ।  अब मैं भगवन व्यास जी के मनः सागर से उत्पन्न उस महाभारत के कथा को सुनना चाहता हूँ. आप मझे वो कथा सुनाइए।   

उग्रश्रवा जी ने कहा……

अब मैं वही कथा तुम्हे आरम्भ से सुनाता हूँ।  मुझे भी यह कहानी सुनाने में बड़ा हर्ष होता है।।


जब भगवान श्री कृष्णद्वैपावन को यह बात मालुम पडी कि, जनमेजय सर्प यज्ञ के लिए दीक्षित हो चुके हैं, तो वो अपने शिष्यों के साथ वहां आये।

भगवान व्यास का जन्म शक्ति पुत्र पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से यमुना की रेती में हुआ था। * 

वो पांडवो के पितामह थे।  वो जन्मते हीं स्वेच्छा से बड़े हो गए और साङ्गोपाङ्ग वेदो और इतिहासों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।

उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे कोई तपस्या, वेदाध्यन, व्रत, उपवास, स्वाभाविक शक्ति और विचार से प्राप्त नहीं कर सकता था।

उन्होंने एक हीं वेद  को चार भागो में विभक्त कर दिया। *

उन्ही की कृपा प्रसाद से धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर का जन्म हुआ था।

अपने शिष्यों के साथ उन्होंने यज्ञमंडप में प्रवेश किया। उन्हें देखते हीं राजा जमेजय सहित सारे सभासद, ऋत्विज झटपट अपनी-अपनी जगहों से खड़े हो गए।    

राजा जनमेजय ने आगे बढ़कर उनका यथोचित स्वागत-सत्कार किया और कहा

भगवन ! आपने तो पांडवो और कौरवो को अपनी आँखों से देखा है।  वो तो बड़े धर्मात्मा थे, फिर उनलोगों में अनबन क्यों हुआ !! इतना घोर युद्ध होने की नौबत कैसे आ गयी ?? इससे तो सारे प्राणियों का बड़ा अनर्थ हुआ होगा, अवश्य हीं दैववश उनका झुकाव युद्ध की तरफ हो गया होगा ?? आप कृपया करके मुझे उनकी पूरी कथा सुनाइए।  

जनमेजय की यह बात सुनकर वेद व्यास ने वहां बैठे अपने शिष्य वैशम्पायन जी को कहा

तुम मुझसे पूरी महाभारत की कथा सुन चुके हो, अब वही बात तुम जनमेजय को दुहरा दो…… 

इस पर वैशम्पायन जी ने संकलप के द्वारा गुरु को प्रणाम किया और कहा

यह कथा एक लाख श्लोको में कही गयी है।  इसके वक्ता और श्रोता दोनों ब्रह्मलोक में जाकर देवताओं के सामान हो जाते हैं। यह उत्तम और पवित्र पुराण वेद तुल्य है।  सुनने और सुनाने योग्य कथाओं में उत्तम है।

इससे मनुष्य को अर्थ और काम की प्राप्ति के धर्मानुकूल उपाय बताये गए, और मोक्ष तत्त्व को पहचानने की बुद्धि भी आ जाती है।

इस इतिहास का नाम जय है, और चूँकि इसमें भरतवंशी के जन्मो का महान कीर्तन है, इसलिए इसे महाभारत भी कहते हैं।

भगवान श्री कृष्णद्वैपावन जी हर दिन सुबह उठकर स्नान संध्या आदि से निवृत होकर इसका निर्माण करते थे। इस कार्य में उन्हें तीन वर्ष का समय लगा, इस लिए इसका श्रवण भी उसी प्रकार नियम से करना चाहिए।

जैसे समुद्र और सुमेरु पर्वत रत्नो की खान है वैसे हीं ये ग्रन्थ भी कथाओ का मूल उद्गम है।  धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष  सम्बन्ध में जो बात इस है, वही सवत्र है।

जो इसमें नहीं है वो और कहीं  नहीं है.…… 





 


     

"ठहर जा !! ठहर जा !! ठहर जा !!" Episode 14

उग्रश्रवा जी कहते हैं…

इस प्रकार यज्ञ में बहुत से सर्प नष्ट हो गए और थोड़े हीं बचे। इससे वासुकि नाग को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने घबराये हुए स्वरों में अपनी बहन, ऋषिपत्नी जरत्कारु को कहा.…

बहिन !! मेरा अंग-अंग जल रहा है। आँखों के आगे इतना अँधेरा छाया है कि मेरा दिशा ज्ञान खोता चला जा रहा है। खड़ा होना भी मुश्किल है!! लगता है मैं भी बलात पूर्वक उस यज्ञ की अग्नि में जा गिर पडूंगा।  

मैंने इसी समय के लिए तुम्हारा विवाह जरत्कारु ऋषि से कराया था। तुम अपने पुत्र आस्तिक को ब्रह्मा जी के कथनानुसार इस यज्ञ को बंद कराने के लिए कहो।  

इस पर ऋषिपत्नी जरत्कारु ने अपने पुत्र को सारा इतिहास बतला कर, उन्हें सर्पो की रक्षा के लिए प्रेरित किया। इस पर आस्तिक बोले

"नागराज!! आप मन में शांति रखिये। मैं आप से सत्य-सत्य कहता हूँ, मैं उस श्राप से आपलोगों को मुक्त करा लूंगा. मैंने कभी परिहास में भी असत्य वचन नहीं बोला है।

मैं अपने मीठे वचनो से राजा जनमेजय को प्रसन्न कर लूँगा और वह यज्ञ बंद कर देगा। मामा जी !! आप मेरा विश्वास करें  …"   

यह बोलकर, आस्तिक यज्ञशाला की तरफ चल दिए।

वहां पंहुच कर उन्होंने देखा की सूर्य और अग्नि के सामान तेजस्वी सभासदों से पूरी यज्ञशाला भरी पड़ी है। द्धारपालो ने उन्हें यज्ञ मंडप में प्रवेश करने से रोक दिया।

इस पर आस्तिक द्धार से खड़े-खड़े हीं यज्ञ की स्तुति करने लगे।

उनके द्वारा यज्ञ की स्तुति सुनने के पश्चात, जनमेजय ने उन्हें अंदर आने दे दिया।

अंदर आ कर वो और ऋत्विजों के साथ यज्ञ की स्तुति करने लगे। अभी वो बालक हीं थे मगर उनकी स्तुति सुनकर राजा, सभासद, ऋत्विज और अग्नि सभी प्रसन्न हो गए।  जनमेजय ने खुश हो कर कहा.…

"यद्यपि ये बालक हैं, पर फिर भी बात अनुभवी वृद्धों के समान कर रहा है। मैं इसे वर देना चाहता हूँ। आपकी क्या मंत्रणा है!!! "

इस पर वहां मौजूद सभी सभासदों, ऋत्विजों ने एक स्वर में कहा

बालक ब्राह्मण भी राजा के लिए सम्मानीय है ,फिर, अगर वो बालक विद्वान हो तो कहना हीं क्या!!! अतः आप इस बालक को मनमांगी वास्तु दे सकते हैं।।

इस पर राजा जनमेजय ने कहा

आपलोग और प्रयत्न्न कीजिये जिससे तक्षक नाग यहाँ आ कर भष्म हो। वही तो मेरा प्रधान शत्रु है। ।

ऋत्विजों ने कहा

अग्निदेव का कहना है कि तक्षक इंद्र की शरण में चला गया है और उन्होंने उसे अभयदान दिया है… 

इस पर जनमेजय ने कुछ खिन्न होकर कहा …

आपलोग कुछ ऐसा कीजिये कि वो इंद्र के सहित इस अग्नि में आ गिरे… 

इसके बाद होता ने आहूति डाली, तो उसी समय तक्षक और इंद्र दोनों आकाश में दिखाई दिए। इंद्र तो उस यज्ञ को देखकर बहुत हीं घबरा गए और तक्षक को छोड़ कर चलते बने।

तक्षक क्षण-क्षण अग्नी ज्वाला के समीप आने लगा, तब ब्राह्मणो ने कहा.…

अब आपका काम ठीक -ठीक हो रहा है।  आप इस ब्राह्मण को वर दे दीजिये....  

तब राजा जनमेजय ने कहा

ब्राह्मणकुमार ! मैं आपके जैसे सत्पात्र को वर देना चाहता हूँ।  अतः आपकी जो इच्छा हो ,वो आप मांग ले। आपको मैं कठिन से कठिन वर भी दूंगा। आप मांगिये।  

आस्तिक ने देखा कि अब तक्षक अग्नि में गिरने हीं वाला है तो उसी वक़्त उन्होंने वर माँगा

राजन !! आप प्रसन्न हों तो इसी समय यह सर्प यज्ञ बंद कर दे, जिससे इसमें गिरते हुए सर्प  बच जाए। । 

इस पर जनमेजय ने कुछ अप्रसन्न होकर कहा.…

समर्थ ब्राह्मण!! तुम सोना- चांदी, धन, गाये, राज्य कुछ भी मांग लो मगर यह नहीं। 

इस पर आस्तिक ने कहा

मुझे और कुछ नहीं चाहिए।  मातृकुल के कल्याण के लिए मैं आपका यज्ञ हीं बंद कराना चाहता हूँ।  

जनमेजय के बार-बार मनाने के बावजूद जब आस्तिक ने दूसरा वर नहीं माँगा, तो सभी सभासदों ने एक स्वर से कहा

ये ब्राह्मणकुमार जो भी मांगता है, इसे मिलना हीं चाहिए।। 

तब शौनक जी ने पुछा

सुतनन्दन!! उस यज्ञ में तो और भी ब्राह्मण और विद्वान ऋत्विज मौजूद थे, तो आस्तिक के बात करते -करते तक्षक अग्नि में नहीं गिरा, इसका क्या कारण हुआ ?? क्या ब्राह्मणो को वैसे मंत्र नहीं सूझे ??? 

इस पर उग्रश्रवा जी कहतें हैं

जब तक्षक इंद्र के हाथों से छूटा तो वो मुर्क्षित हो गया। तब आस्तिक ने तीन बार कहा

"ठहर जा !! ठहर जा !! ठहर जा !!"

इससे वो यज्ञ-कुंड और आकाश के बीच स्थिर हो गया और अग्नि में नहीं गिरा …

सभासदों के बार-बार कहने पर आख़िरकार, राजा जनमेजय ने कहा.…

अच्छा!! आस्तिक की इच्छा पूर्ण हो।  यज्ञ बंद हो और इसी के साथ हमारे सूत की बात भी सच साबित हुई।

इसके बाद जनमेजय ने वहां आये सारे ऋत्विज, सदस्यों और ब्राह्मणो को भरपूर दान दिया. और उस सूत का भी बहुत सत्कार हुआ।।

आस्तिक का भी बहुत आदर-सत्कार हुआ। जनमेजय ने उन्हें विदा करते समय कहा.…

आप मेरे अश्वमेघ यज्ञ में सभासद बने........ 

आस्तिक ने कहा ……  

तथास्तु !!  

इसके बाद आस्तिक ने अपने मामा के घर जाकर उन्हें सारी बात बतायी।

उस समय नागराज वासुकि की सभा में सारे बचे हुए सर्प उपस्थित थे। आस्तिक की बात सुनकर सारे सर्प बड़े प्रसन्न हुए।  वासुकि जी ने बड़े प्यार से उन्हें गले लगा कर कहां……

बेटा !! तुमने हमे मृत्यु के मुँह से निकाल दिया।  बताओ हम ऐसा क्या करें जिससे तुम प्रसन्न हो..... वर मांगो !!! 

इस पर आस्तिक ने कहा

"आप सभी सर्प मुझे वर दे कि जो भी मनुष्य धर्मपूर्वक इस कथा का प्रातःकाल और संध्याकाल में पाठ करे, उसे सर्पों से कोई भय नहीं हो…"

इस पर सर्पों ने एक सुर से कहा

ऐसा हीं होगा !!!!!!!!!!!!


















  








      

सर्प-यज्ञ का प्रारम्भ Episode 13

उग्रश्रवा जी कहते हैं.…

अपने मंत्रियों से अपने पिता की मृत्यु का इतिहास जानने के बाद राजा जनमेजय के अंदर क्रोध और दुःख दोनों के भाव उभरे।

उनके आँखों से आंसू गिरने लगे।  दुःख, शोक, और क्रोध से अभिभुर, आँखों से आंसू बहाते हुए, उन्होंने हाथों में जल लेकर, शाष्त्रोयुक्त तरीके से यह प्रतिज्ञा की.….

"मैं तक्षक से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का संकलप करता हूँ!! उस दुष्ट तक्षक के कारण हीं मेरे पिता की मृत्यु हुई है.श्रृंगी ऋषि का श्राप तो सिर्फ एक बहाना मात्र था. इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि उसने कश्यप ऋषि को ,जो मेरे पिता का विष उतारने के लिए आ रहे थे, उनको धन दे कर लौटा दिया. 

अगर उसने ऐसा नहीं किया होता,तो अवश्य हीं मेरे पिता को कश्यप ऋषि जीवित कर देते, और इससे श्रृंगी ऋषि का श्राप भी पूरा हो जाता और मेरे पिता भी जीवित रहते। इससे भला उस तक्षक की क्या हानि हो जाती ....." 

मंत्रियों ने राजा जनमेजय की प्रतिज्ञा का अनुमोदन किया।।

जनमेजय ने तब अपने मंत्रीगणों और पुरोहितो से ये पुछा कि बताइये……

तक्षक ने मेरे पिता के साथ हिंसा की है, मैं इसके लिए उसे उस सर्प को धधकती आग में होम करना  चाहता हूँ ।।आप कोई ऐसी ऐसी विधि बताइये …....  

इस पर ऋत्विजों ने कहा
राजन !! पहले से हीं देवताओं ने आपके लिए एक महायज्ञ का निर्माण कर रखा है. यह बात पुराणो में भी वर्णित है। आपके अलावा ये महायज्ञ और कोई करेगा भी नहीं।  हमे इस यज्ञ की विधि मालूम है. … इस यज्ञ के यज्ञ-कुंड में सारे सर्पो के साथ तक्षक भी जल कर भष्म हो जाएगा।।।। 

राजा जनमेजय ने उन्हें यज्ञ की सामग्री जुटाने का आदेश दे दिया….

यज्ञ-मंडप तथा यज्ञ-शाला बनकर तैयार हुए, और राजा जनमेजय यज्ञ के लिए दीक्षित हुए. तभी एक अजीब बात हुई।  किसी कला कौशल के पारंगत विद्वान, अनुभवी, और बुद्धिमान सूत ने कहा ……

"जिस स्थान और जिस समय में यज्ञ-मंडप मापने की क्रिया का प्रारम्भ हुआ है, उससे ऐसा लगता है कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकेगा..........  

ऐसा सुनकर राजा जनमेजय ने द्धारपालो से कहा दिया कि बिना मुझे सुचना दिए, कोई भी पुरुष यज्ञ-मंडप में प्रवेश न कर सके. .

थोड़ी देर सर्प-यज्ञ प्रारम्भ हुआ।  धुंए से लोगों की आँखें लाल हो गयी। काले-काले कपडे पहने, ऋषि-गण जोर- जोर से मंत्रोचार कर रहे थे.

उस समय सारे सर्पों का ह्रदय डर से कांपने लगा। एक दुसरे से लिपटते, चिल्लाते-चीखते बेचारे सर्प आ-आ कर यज्ञ-कुण्ड में गिरने लगे. उनके जलने की दुर्गन्ध चारो तरफ फ़ैल गयी और उनके चिल्लाहटों से सारा आकाश गूँज उठा।।।

यह समाचार तक्षक ने भी सुना। वो भयभीत होकर देवराज इंद्र के पास गया और कहा…

देवराज!! मैं अपराधी हूँ।  भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा करिये।।।।।

इंद्र ने प्रसन्न हो कर कहा

मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए पहले से हीं से ब्रह्मा जी से अभयवचन ले लिया है। तुम्हे सर्प यज्ञ से कोई भय नहीं। तुम दुखी मत हो। 

इंद्र की बात सुनकर तक्षक आनंद से इंद्रभवन में हीं रहने लगा.……     










Monday, January 12, 2015

तक्षक 2 Episode 12

शौनक जी ने फिर पुछा …

"सुतनन्दन! राजा जनमेजय ने उत्तंक की बात सुनकर अपने पिता की मृत्यु के संबंध में जो कुछ पुछ-ताक्ष की, आप हमे वो बताइये...।।  

उग्रश्रवा जी ने कहा …

राजा जनमेजय ने उत्तंक की बात सुनने  के बाद अपने मंत्रियों से पुछा

" मेरे पिता के जीवन में ऐसी  कौन सी घटना घटी थी, जिससे उनकी मृत्यु हुई!!!"

इस पर मंत्रियों ने कहा

"आपके पिता बड़े पराक्रमी थे . भगवान श्री कृष्ण को उनसे बड़ा प्रेम था. वो पिता के सामान धर्मनिष्ट होकर पुत्रों की तरह अपने प्रजा का पालन करते थे. 

चूंकि कुरुवंश के परिक्षीण होने पर उनका जन्म हुआ था, इसलिए वो परीक्षित कहलाये. उन्होंने 60 वर्ष तक प्रजा का पालन किया, फिर एक दिन वो सारी प्रजा को दुखी कर इस पृथ्वी से चले गये....

इस पर  राजा जनमेजय ने  कहा

" मगर आपलोगों ने प्रशन का उत्तर तो दिया हीं नहीं!!! " मैं तो अपने पिता के मृत्यु का कारण जानता चाहता हूँ ??"

मंत्रियों ने कहा
"महाराज!! आपके पिता भी राजा पाण्डु * की तरह शिकार के बड़े प्रेमी थे. 

उन्होंने एक दिन एक हिरण को बाण मारा और उसका पीछा करते करते बहुत दूर तक निकल गए।  बहुत दूर तक जा कर भी वो उस हिरण को ढूंढ नहीं पाये। वो साठ वर्ष के हो चुके थे, इसलिए थक गए।  

भूखे और प्यासे थे।  उसी समय उन्हें एक मुनि दिखे।  उन्होंने मुनि से पानी माँगा।  परन्तु मुनि  कुछ नहीं बोले। 

 उस समय राजा भूख और प्यास से क्षुबित थे, थके थे, और मुनि को कुछ बोलता नहीं देख, उन्हें गुस्सा आ गया. वो यह नहीं जान पाये की मुनि मौनव्रत पे हैं.

उन्होंने उनके अपमान के उद्देस्य से, धनुष से उठाकर, एक मरे हुए सर्प को उनके गले में लटका दिया. 

मुनि  इस पर भी कुछ नहीं बोले. राजा परीक्षित भी ज्यों-त्यों उलटे पाँव वापस महल में चले आये.

उन मौनी ऋषि शमीक का पुत्र था श्रृंगी।  बड़ा हीं तेजस्वी और महाशक्तिशाली!!  

जब उसने अपने मित्रों से सुना कि राजा परीक्षित ने मौन और निष्चल अवस्था में बैठे ,उनके  पिता का  तिरस्कार  किया है, तो वो क्रोध  से  आग -बबूला  हो गया।  उसने  हाथ में जल लेकर  आपके पिता को श्राप  दिया …

" जिसने मेरे निरपराध पिता के कंधे में मरा हुआ सांप रखा है, उसे तक्षक सांप क्रोधित होकर सात दिनों के अंदर अपने विष से जला देगा। लोग मेरी  तपस्या का बल देखें!!!!


श्रृंगी ने लौट कर यह  बात अपने पिता शमीक ऋषि को बतायी।  उन्हें  यह बात सुनकर अच्छा नहीं लगा।  उन्होंने आपके पास अपने शीलवान और गुणी शिष्य गौरमुख को भेजा।

गौरमुख  ने आपके पिता को यह श्राप वाली बात बतायी और उन्हें सावधान कर दिया.

सातवे दिन जब तक्षक आ रहा था तो उसने कश्यप नामक एक ब्राह्मण को देखा। तक्षक ने पुछा… 

"ब्राह्मण देवता आप इतनी शीघ्रता से कहाँ जा रहे हैं और क्या करना चाहते हैं ??

इस पर कश्यप ने कहा 

"जहाँ आज राजा परीक्षित को तक्षक सांप जलाएगा, मैं वहीँ जा रहा हूँ।  मैं उन्हें तुरंत जीवित कर दूंगा, मेरे पहुँचने पर तो वो सांप जला भी नहीं सकेगा …"


तक्षक  ने कहा 

मैं हीं तक्षक हूँ. आप उसे जीवित क्यों करना चाहते हैं ?? मेरे डंसने के बाद उसे जीवित कर भी नहीं पाएंगे। आप मेरी शक्ति देखिये !!

इतना कहकर तक्षक ने अपना विष सामने एक वृक्ष पे छोड़ा। वृक्ष जलकर राख हो गया। पल भर में कश्यप ने उस जले वृक्ष को दुबारा हरा भरा बना दिया!!

 यह देख कर तक्षक कश्यप की खुशामद करने लगा…" आप क्यों जाना चाहते हैं?? आपको क्या चाहिए??

ब्राह्मण   ने कहा 

मैं तो धन के लिए जा रहा हूँ। ।

तक्षक ने कहा

आप मुँहमाँगा धन मुझसे ले लीजिये  और यहीं से लौट जाइए !!

ब्राह्मण उनसे मुँहमाँगा धन लेकर वहीँ से लौट गया। 

इसके बाद तक्षक छल से आया और उसने अपने महल में बैठे, सावधान , आपके धार्मिक पिता को अपने विष की आग से भस्म कर दिया. 

तक्षक ने हीं आपके पिता को डंसा है, और उसने उत्तंक ऋषि को भी बहुत कष्ट दिया है. आपको जो उचित लगे वो कीजिये। आपके आदेश से हीं, हमने यह दुखद घटना आपको बतायी है।

इस पर राजा जनमेजय ने कहा.…

तक्षक के डंसने से वृक्ष का राख हो जाना और कश्यप को उसका दुबारा हरा भरा बना देना, यह बात आपको कहाँ से मालूम पडी है??

क्योंकि अगर ऐसा है तो कश्यप मेरे पिता को भी जीवित कर सकते थे!!  फिर तो तक्षक ने उनको लौटा कर बहुत अनर्थ किया है !! अच्छा !! मैं इसका दंड दूंगा. पर पहले आप इस कथा का  मूल तो बताइये??

तक्षक ने जिस पेड़ को डंसा था उस पेड़ पे पहले से हीं एक इंसान सुखी लकड़ियों के ढेर के साथ बैठा हुआ था।  यह बात न तो कश्यप को पता थी और न हीं तक्षक को। 

वो भी पेड़ के साथ राख हो गया और जब  कश्यप के मंत्र प्रभाव से जब वो पेड़ दुबारा हरा -भरा हुआ तो वो इंसान भी जीवित हो गया.

तक्षक और कश्यप की बातचीत उसने सुनी थी और उसी ने आकर हमको ये सूचना दी.

अब आप हमलोगो का देखा-सुना जानकार जो उचित लगे , कीजिए.… 





 






 
 



Thursday, January 8, 2015

जरत्कारू ऋषि की कहानी Mahabharata Episode 11

फिर शौनक जी ने पुछा

"आपने जिन जरत्कारू ऋषि का नाम लिया है, उनका नाम जरत्कारू क्यों पड़ा?? उनके नाम का क्या अर्थ है ? और उनसे आस्तिक ऋषि का जन्म कैसे हुआ था ??"

उग्रश्रवा जी ने कहा

जरा का अर्थ होता है क्षय और कारू का मतलब है दारुण, मतलब हट्टा कट्टा। उनका शरीर बहुत हट्टा कट्टा था, जिसे उन्होंने तपस्या करके क्षीण कर लिया था, इसलिए उनका नाम पड़ा जरत्कारू।


वासुकि की बहन भी ऐसी हीं थी. उसने भी तपस्या कर अपना शरीर क्षीण कर लिया था, इसलिए वो भी जरत्कारू कहलाई।


जरत्कारू ऋषि विवाह नहीं करना चाहतें थे।

 उन्होंने बहुत दिनों तक ब्रहमचर्य धारण कर तपस्या की।
वो जप, तप और स्वाध्याय में लगे रहतें और निर्भय होकर स्वच्छंद रूप से पृथ्वी का भ्रमण करते रहतें। 


उनका नियम था, जहाँ भी शाम हो जाती, वो वहीँ रुक जाते।एक दिन यात्रा करते समय उन्होंने देखा कि कुछ पितर नीचे की ओर मुँह किये एक गड्ढे से लटक रहे हैं। 


वो खस का एक तिनका पकडे हुए थे और वही केवल बच भी रहा था। उस तिनके की जड़ को भी एक चूहा कुतर रहा था।


पितृगण निराहार थे, दुबले और दुखी थे।।

जरत्कारू ने उनके पास जाकर पुछा  …
 
आपलोग जिस तिनके का सहारा लेकर लटक रहें है, उसके जड़ को एक चूहा कुतर रहा है, जड़ जब कट जाएगा, तो आप इस गड्ढे में गिर पड़ेंगे। आपलोग कौन हैं!!! और कैसे इस मुसीबत में आ पड़े हैं। मझे आपलोगों को इस तरह देख कर बहुत दुःख हो रहा है. मैं आपकी किस तरह से मदद करूँ !! 

मैं अपनी तपस्या का दसवा, चौथाई अथवा आधा फल देकर भी अगर आपलोगों का इस कष्ट से निवारण कर सकूं, तो मुझे बताये। यहाँ तक की मैं अपने पूरे तपस्या का फल देकर भी आपलोगों को बचाना चाहता हूँ !!!! "


इस पर उन पितरों ने कहा ....

"तपस्या का फल तो हमारे पास भी है। तपस्या के फल से हमारी विप्पति नहीं टल सकती । हम कुल-धर्म परंपरा के नाश  होने के कारण इस गति को प्राप्त हो रहे हैं। हमारे कुल में अब सिर्फ एक हीं व्यक्ति रह गया है, जरत्कारू!! और हमारे अभाग्य से वो भी तपस्वी हो गया है!! वो विवाह नहीं करना चाहता है।

तपस्या के लोभ में उसने हमे इस अधोगति पे पंहुचा दिया है। उसका कोई भाई-बन्धु  पत्नी-पुत्र नहीं  है। इसी कारण हम अनाथों की भाँती इस गड्ढे में लटक रहें हैं ।
और आप जो खस की जड़ देख रहें है, वही हमारे वंश का सहारा है, और वो आखिरी तिनका, हमारे वंश का आखिरी पुरुष जरत्कारू है। ये चूहा महाकाल है, जो धीरे-धीरे इसे कुतर रहा  है। 

अगर तुम हमारी मदद करना चाहते हो, तो, अगर तुम्हे कहीं जरत्कारू दिखे तो उससे कहना, यह महाबली काल एक दिन उसे भी नष्ट कर देगा, और तब हम सब और भी मुसीबत में आ पड़ेंगे।।"


यह सुनकर जरत्कारू ऋषि को बड़ा दुःख हुआ, उनका गला भर आया, और वो गदगद गले से बोले...

"आपलोग मेरे हीं पिता और पितामह हैं, मैं आपका अपराधी पुत्र जरत्कारू हूँ.... "

पितरों ने कहा

"यह बहुत सौभाग्य की बात है कि तुम हमे मिल गए हो। यह बताओ तुमने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया है !!"

जरत्कारू ऋषि ने कहा

"मैंने अपने मन में यह दृढ निश्चय कर लिया था कि मैं कभी विवाह नहीं करूंगा। परन्तु अब, आपलोग के कष्ट को देखकर, मैंने ब्रह्मचर्य का निश्चय पलट दिया है। 

अगर मुझे अपने हीं नाम की कोई स्त्री भिक्षा के रूप में मिल जाए,तो मैं उस कन्या से विवाह  कर लूँगा, पर उसके भरण-पोषण का भार नहीं उठाऊंगा ।।

ऐसी सुविधा मिलने पर हीं मैं विवाह करूंगा अथवा नहीं। आप चिंता ना करें। आप के कल्याण के लिए मेरा विवाह अवश्य होगा।
 
ये कहकर वो पुनः पृथ्वी पे विचरने लगे। 

पर एक तो बूढ़ा समझकर उन्हें कोई अपनी कन्या नहीं देता अथवा उन्हें अपने अनुरूप कन्या नहीं मिलती।


इससे निराश होकर एक दिन वो वन में गए और पितरों के हित के लिए तीन बार धीरे धीरे ये बोला ....

"मैं कन्या की आचना करता हूँ।

 जो भी चर-अचर, अथवा गुप्त और प्रकट प्राणी हैं सुने, मैं अपने पितरों के कल्याण के लिए, उनकी प्रेरणा से एक कन्या की भीख मांगता हूँ। जिस कन्या का नाम मेरा हीं हो, जो मुझे दान की तरह दी जाए, और जिसके भरण पोषण का दायित्व्य मेरे उपर ना हो, वैसी कन्या मुझे प्रदान करो।।।। 


वासुकि नाग के नियुक्त सर्पों ने जब ऐसा सुना, तो उन्होंने जा कर नागराज वासुकि को ये बताया, तो नागराज वासुकि चटपट अपनी बहन जरत्कारू को लेकर वहां पहुंच गए।।


जरत्कारू ऋषि ने उनके सामने अपनी बात  दुहराई.....

इसका नाम भी जरत्कारू हीं होना चाहिए और मुझे यह भिक्षा में मिलनी चाहिए और मैं इसका भरण पोषण नहीं करूंगा !!

वासुकि ने कहा

"इसका नाम भी जरत्कारू हीं है, ये मेरी बहन है। इसकी भरण पोषण और रक्षा मैं करूंगा। आपके लिए हीं मैंने इसे अब तक रख छोड़ा है....। "


इस पर जरत्कारू ने कहा

इसका भरण पोषण मैं नहीं करूंगा, ये एक शर्त तो हो हीं गयी। दूसरा और एक सुन लो!! अगर इसने कभी, मेरा कोई अप्रिय काम किया तो मैं इसे छोड़ कर चला जाऊँगा।
 
जब नागराज वासुकि ने उनकी सभी शर्तों को मान लिया।

वो उन्हें अपने महल में ले आयें। वहां उनका विधिवत विवाह हुआ। वो सुख से सर्पराज वासुकि के  महल में रहने लगे। 

उन्होंने अपनी पत्नी को भी यह बता दिया था...

"मेरी रूचि के खिलाफ ना तो कुछ करना, ना हीं कुछ बोलना, वरना मैं तुम्हे छोड़कर चला जाऊँगा !! "


उसके बाद उनकी पत्नी जरत्कारू बहुत ध्यान से उनकी सेवा करने लगी और समय रहते उसे गर्भ ठहर हो गया।


एक दिन शाम में कुछ खिन्न हो कर जरत्कारू ऋषि अपनी पत्नी की गोद में सर रखकर सो रहें थे।  


संध्याकाळ हो चूका था और क्षण भर में सूर्यास्त हुए जाता था। 

ऋषिपत्नी को धर्मसंकट आ गया.....

अगर उठाया तो उनके आराम में विघ्न होगा और सोने दिया तो धर्मलोप!!!

ऋषिपत्नी ने जरत्कारू के आराम के ऊपर उनके धर्मपालन को महत्व दिया और धीरे से बोलीं...

हे भगवन!! उठे और देखें की सूर्यास्त होने हीं वाला है।  अग्निहोत्र का समय है, कृपया संध्या-वंदना के लिए उठे !!

नींद में विघ्न पड़ने पर जरत्कारू ऋषि बड़े गुस्से में उठे। क्रोध से उनके होठ कांपने लगें और उन्होंने बड़े गुस्से में कहा ...

सर्पिनी!! तूने मेरा अपमान किया है! मेरा यह दृढ  निश्चय है कि मेरे सोते हुए कभी भी सूर्यास्त नहीं हो सकता। अब मैं अपने अपमान की जगह में नहीं रह सकता।

इस ह्रदय में कंपकपी पैदा कर देने वाली बात को सुन ऋषिपत्नी बोली.....

"मगर प्रभु मैंने आपके अपमान के उद्देश्य से आपको नहीं उठाया। आपके धर्म का लोप ना हो, यही मेरी दृष्टी थी..."
इस पर जरत्कारू ऋषि बोले

अब मेरा बोला टल नहीं सकता। वैसे भी ये हमारी शर्त में था। अब मैं जहाँ से आया था, वहीँ जा रहा हूँ। तुम अपने भाई से कहना मैं जितने दिन यहाँ रहा, बड़े सुख से रहा....."

यह सुनकर ऋषिपत्नी डरते-डरते दुबारा बोली...

धर्मज्ञ! मुझ निपराध को ऐसे ना छोडिये! आप तो जानते हीं है की मेरे आपके विवाह का एक प्रयोजन था कि हमारे संयोग से एक पुत्र पैदा हो, जो हम सर्पों को राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ में बचाएगा। अभी तो मेरे गर्भ से संतान भी नही हुई है आप मुझे क्यों छोड़ कर जाना चाहतें हैं !! कृपया तब तक आप ठहर जाइये..."

इस पर जरत्कारू ऋषि ने कहा


"तुम्हारे गर्भ में एक अग्नि के सामान तेजस्वी बालक है, जो बहुत हीं बड़ा विद्वान तपस्वी होगा ...।।"

इसके बाद जरत्कारू ऋषि वहां से चले गए। 

उनके जाते हीं ऋषिपत्नी ने उनके जाने की बात वासुकि जी को बताई ।

 वासुकी जी को यह सुनकर बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने ह्रदय कड़ा कर पुछा...

"उनके क्रोध के सामने कौन ठहर सकता है!! कहीं मैं उन्हें बुलाने जाऊं और वो मुझे गुस्से में श्राप न दे दे !!

बहिन! भाई को ऐसी बातें बहन से करना शोभा नहीं देता। परन्तु तुम तो जानती हीं हो को तुम्हारे उनके विवाह का एक प्रयोजन था। 

क्या तुम्हारा गर्भ ठहरा है ????

इस पर ऋषि-पत्नी ने उनकी बात दुहरा दी और कहा

"कभी विनोद में भी उन्होंने असत्य नहीं कहा!! ... "

यह सुनकर वासुकि जी बड़े प्रसन्न हुए और बड़े प्रेम से अपनी बहन का स्वागत-संस्कार करने लगे। 

समय आने पे उसके गर्भ से एक दिव्य-कुमार का जन्म हुआ।  

उसके जन्मने से मातृवंश और पितृवंश दोनों का भय जाता रहा। 

बाल्यावस्था में बड़े प्रयत्नो से उसकी रक्षा की गयी और थोड़े हीं दिनों में बालक इंद्र के समान बढ़कर नागो को हर्षित करने लगा।

 क्रमशः बड़े होकर उसने च्व्यन ऋषि से वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया। 


चूँकि जब वह गर्भ में था, तो उसके पिता ने उसके लिए "अस्ति"( है ) शब्द का उच्चारण किया था, इसलिए उनका नाम आस्तिक पड़ा।।।।