जनमेजय ने कहा...
भगवन मैंने अब आपसे देवता-दानव के अंश से अवतरित होने की कथा सुन ली है । अब आपकी पूर्व सूचना के अनुसार कुरुवंश का वर्णन सुनना चाहता हूँ …
वैशम्पायन जी कहते हैं ...
महाराज कुरुवंश* का प्रवर्तक था परम प्रतापशाली राजा दुष्यंत। समुद्र से घिरे और मल्लेछों के देश भी उसके अधीन थे। सभी लोग राज्याश्रय में निर्भय रहकर निष्काम धर्म का पालन करते थे।
दुष्यंत स्वयं विष्णु के सामान बलवान, सूर्य के सामान तेजस्वी, समुन्द्र के सामान अक्षोब्य और पृथ्वी के सामान क्षमाशील था। लोग प्रेम से उसका सम्मान करते और वह धर्म बुद्धि से सबका शाषण करता।
एक दिन वो अपनी पूरी सेना को लेकर एक गहन वन से गुजर रहे थे। उस गहन वन के पार हो जाने पर उन्हें एक आश्रम दिखा। वो आश्रम एक ऐसे उपवन में बना था जिसकी छटा देखतें हीं बनती थी।
अग्निहोत्र की ज्वालायें प्रज्वालित हो रही थी, वालखिल्य आदि ऋषियों, जलाशयों, पुष्प, पक्षियों के मधुर ध्वनि के कारण उस जगह की शोभा अद्भुत हो रही थी। ब्राह्मण देवताओं की स्तुति कर रहे थे, सामने मालिनी नदी बह रही थी, राजा दुष्यंत को लगा मानो वो ब्रह्मलोक में हीं आ गए हो।
यह सब देखते देखते राजा दुष्यंत वहां कश्यप गोत्रधारी मह्रिषी कण्व के आश्रम में आ पंहुचे। उन्होंने मंत्रियों को द्वार के बहार हीं रोक दिया और अकेले हीं अंदर आयें। आश्रम को सुना देख उन्होंने आवाज लगायी…
" यहाँ कोई है !!! "
तभी अंदर से एक लक्ष्मी के सामान सुन्दर कन्या बाहर आयी और उसने आसान, पाद्य और अर्घ्य के द्वारा राजा का आतिथ्य करके उनका कुशल समाचार पुछा। स्वागत -सत्कार के बाद कन्या ने तनिक मुस्करा कर उनसे कहा …
"मैं आपकी और क्या सेवा करूँ ?"
राजा दुष्यंत ने कहा ...
मैं महर्षि कण्व के दर्शन करने के लिए आया हूँ , वो अभी कहाँ हैं???
उस सर्वांगसुंदरी, रूपवती कन्या ने कहा ...
" महर्षि कण्व जंगल से फल फूल लाने गए हैं.। आप घडी दो घडी उनकी प्रतीक्षा करे, वो आते हीं होंगे, तब आप उनसे मिल सकेंगे … "
ऋषि कन्या के रूप को देख राजा दुष्यंत उसपे मोहित हो गए और उन्होंने उससे पुछा …
हे सुंदरी ! तुम कौन हो, तुम्हारे पिता कौन है, और किसलिए तुम यहाँ आयी हो, तुमने मेरा मन मोहित कर लिया है… मैं तुम्हे जानना चाहता हूँ।
ऋषिकन्या ने कहा ...
मैं महर्षि कण्व की पुत्री हूँ…
इस पर दुष्यंत ने कहा
मगर महर्षि कण्व तो ब्रह्मचारी हैं, सूर्य अपने पथ से विचलित हो सकता है मगर महर्षि कण्व नहीं, फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम उनकी पुत्री हो।
कन्या ने कहा...
राजन ! एक ऋषि के पूछने पर मह्रिषी कण्व ने मेरे जन्म की कहानी सुनाई थी। उससे मैं जान सकी हूँ कि जब परम प्रतापी विश्वामित्र अपनी घोर तपस्या में लीन थे, तो देवराज इंद्र ने मेनका को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा था, उन्ही दोनों के संसर्ग से मेरा जन्म हुआ था, माता मुझे वन में छोड़ कर चली गयी थी, तब शकुंतो (पक्षियों) ने मेरी रक्षा की थी इसलिए मेरा नाम शकुंतला पड़ा ।। बाद में मह्रिषी कण्व मुझे अपने आश्रम में ले आएं। शरीर के जनक, रक्षक और अन्नदाता तीनो हीं पिता कहे जाते हैं, इस तरह महर्षि कण्व मेरे पिता हुए …
इस पर राजा दुष्यंत ने कहा.…
विश्वामित्र तो क्षत्रिय थे, अतः तुम क्षत्रिय हुई। इसलिए तुम मेरी पत्नी बन जाओ ! क्षत्रियों के लिए गन्धर्व विवाह सर्वश्रेष्ठ माना गया है , अतः तुम मुझे खुद हीं वरण कर लो।
इस पर शकुंतला ने कहा.…
मेरे पिता अभी यहाँ नहीं हैं, उन्हें यहाँ आने दीजिये, वो खुद हीं मुझे आपकी सेवा में समर्पित कर देंगे !!
इस पर राजा दुष्यंत ने कहा...
मैं चाहता हूँ तुम खुद हीं मेरा वरण कर लो, मनुष्य स्वयं हीं अपने सबसे बड़ा हितैषी है, तुम धर्म के अनुसार स्वयं हीं मुझे अपना दान कर दो…
यह सुनकर शकुंतला ने कहा.…
अगर आप इसे धर्मानुकूल मानते हैं और मुझे स्वयं का दान करने का अधिकार हैं तो मेरी एक शर्त सुन लीजिये, कि मेरे बाद मेरा हीं पुत्र सम्राट बनेगा और मेरे जीवनकाल में हीं वो युवराज बन जाये !!!
राजा दुष्यंत ने बिना कुछ सोचे समझे वैसी हीं प्रतिज्ञा कर ली और गन्धर्व विधि से उसका पाणिग्रहण कर लिया।
दुष्यंत ने उसके बाद उससे समागम कर बार बार उसे यह विश्वास दिलाया कि.…
" मैं तुम्हे लाने के लिए चतुरांगणी सेना भेजूंगा और शीघ्र से शीघ्र तुम्हे अपने महल में बुला लूँगा …
ऐसा बोल कर वो बिना महर्षि कण्व से मिले बिना सेना सहित वापस नगर लौट गए।
रास्ते भर वो ये सोंचते रहें कि पता नहीं महर्षि कण्व यह सब जान कर न जाने क्या करेंगे …
थोड़ी हीं देर में महर्षि कण्व आश्रम में आ पहुंचे। लाज के मारे शकुंतला उनसे छिप गयी।
महर्षि कण्व ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह जान लिया कि क्या हुआ था, उन्होंने शकुंतला को बुला कर कहा
तुमने मुझसे छिप कर, एकांत में जो कार्य किया है वह धर्म के विरुद्ध नहीं है। क्षत्रियों के लिए गन्धर्व विवाह शास्त्रोचित है, दुष्यंत एक उदार, परम प्रतापी और धर्मात्मा पुरुष है, उसके संयोग से एक बड़ा बलवान पुत्र पैदा होगा और वो सारी पृथ्वी का राजा होगा…
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