StatCounter

Tuesday, January 6, 2015

माता का श्राप Episode 10

शौनक आदि ऋषियों ने तब उग्रश्रवा ऋषि से यह पुछा…

सुतनन्दन! जब सर्पों को पता था कि उनकी माता ने उन्हें ऐसा भयानक श्राप दे दिया है तो उन्होंने अपने बचाव में क्या किया!!

उग्रश्र्वा जी ने कहा

उन सर्पों में एक शेषनाग भी थे।शेषंनाग शुरू से हीं धार्मिक प्रवृति के थे.....

उन्होंने कद्रु और अन्य सर्प भाइयों का साथ छोड़ दिया। और अन्नजल त्याग, केवल हवा पी कर उन्होंने बहुत वर्षों तक बड़ी कड़ी तपस्या की. अपनी सारी इन्द्रियों को जीत वो गन्धमादन,  बद्रिकाश्रम, गोकर्ण, और हिमालय आदि की तराइयों में एकांतवास करते। उन्होंने अनेको तीर्थस्थलों की भी यात्रा की.

उनकी इस घोर तपस्या को देख एक दिन ब्रह्मा जी उनके पास आये और कहा.....

"इस तरह इतनी घोर तपस्या करके तुम जगत के लोगों को ऐसा संताप क्यों दे रहे हो? कोई और प्रजा की भलाई वाला काम क्यों नहीं करते!! आखिर तुम्हे क्या चाहिए??? … "

शेषनाग ने कहा

" हे भगवन मेरे सभी बड़े मुर्ख हैं. मेरा मन उन सर्प भाइयों की कुटिलता से बड़ा दुखी हो गया है. मैं उनसे दूर रहना चाहता हूँ. गरुड़ मेरे भाई हैं,  मैं उनसे स्नेह रखता हूँ. मैं तपस्या करके अपने इस शरीर को त्याग देना चाहता हूँ. परन्तु मुझे डर है की कहीं मृत्यु के बाद भी ना मुझे, अपने भाइयों के साथ हीं रहना पड़े !! मैं धर्मनिष्ट रहना चाहता हूँ ....।।"

यह सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा

तुम्हारे भाइयों की करतूते मुझसे छिपी नहीं हैं. वैसे भी माता की आज्ञा का उलंघन करके, वो संकट में पड़ हीं चुके हैं!! अस्तु! मैंने उसका भी परिहार सोंच रखा है. तुम उनकी चिंता मत करों। मैं तुमपे प्रसन्न हूँ , क्योंकि सौभाग्यवश तुम्हारी बुद्धि धर्म में अटल है।  तुम मनचाही वस्तु वर में मांग लो.…"

तब शेषनाग ने वर माँगा …

"हे पितामह! आप मुझे ऐसा वर दीजिये , जिससे मेरी बुद्धि सदा धर्म, तपस्या और शान्ति में सलंग्न रहे.… !!"

ब्रह्मा जी ने कहा

"ऐसा हीं हों!!!  और मैं तुम्हारे इन्द्रियों और मन के संयम से प्रसन्न हूँ, तुम मेरा एक काम करों, यह पृथ्वी बड़ी हिलती डुलती रहती है*, तुम इसे धारण कर लो जिससे यह अचल हो जाये. …"


इस पर शेषनाग जी ने कहा। …

"आप प्रजा के स्वामी हैं, मैं आपकी ज्ञान का पालन करूंगा, आप इस पृथ्वी को मेरे सर के ऊपर रख दीजिये..."

ब्रह्मा जी कहा

"शेष!! ये पृथ्वी में तुम्हे मार्ग देगी। तुम उसके अंदर घुस जाओ. इस पृथ्वी को धारण करके तुम मेरा बड़ा प्रिय कार्य करोगे....."

ब्रह्मा जी के आज्ञानुसार वो पृथ्वी के भू-विवर में प्रवेश कर गए और समुद्रों से घिरी इस पृथ्वी को चारो और से पकड़ कर अपने सर पे उठा लिया।

 ब्रह्मा जी उनके धर्म, धैर्य और शक्ति की प्रसन्नता कर वापस चले गये।


उधर सर्पों के सबसे बड़े भाई वासुकी नाग को भी माता के श्राप से बड़ी चिंता हुई और वो इसका प्रतिकार सोंचने लगे।  उन्होंने सलाह के लिए सभी भाइयों को इकट्ठा किया और कहा ….

"माता ने हमे श्राप दे दिया है। हमे उसके निवारण के बारे में सोंचना चाहिए। सारे श्रापों का प्रतिकार संभव है पर माता के श्राप का कोई प्रतिकार दिखाई नहीं पड़ता। हमे अब व्यर्थ समय नहीं गंवाना चाहिए, विप्पत्ति आने से पहले हीं उपाय करने से काम बन सकता है..... "

तब "ठीक है, ठीक है " कहकर सभी बुद्धिमान और चतुर सर्प विचार करने लगे.…

कुछ नागो ने कहा " हमलोग ब्राह्मण बनकर जनमेजय से यह भिक्षा मांगे कि वो ये यज्ञ न करे" कुछ ने कहा "हम मंत्री बन कर ऐसी सलाह दे की यज्ञ हीं न होने पावे.… " किसी ने कहा "उनके पुरोहित को हीं डंस कर मार देतें हैं, पुरोहित के मरने से यज्ञ अपनेआप रुक जायेगा .… "

इस पर धर्मात्मा और दयालु सर्पो ने कहा

राम-राम!! ब्रह्महत्या तो महापाप है। संकट से समय धर्म की रक्षा से हीं रक्षा होती है ।

कुछ नागों ने कहा

" हम बादल बनकर यज्ञ की अग्नी को हीं बुझा देंगे"

कुछ बोले "हम यज्ञ की सामग्री चुरा लायेंगे "

कुछ ने कहा "हम लाखों लोगों को डंस लेंगे "

इसके बाद सर्पों ने कहा  

"वासुके! हम तो यही सब उपाय सोंच सकते हैं? आपकी जो इच्छा लगे, अति शीघ्र करें।।।"

इस  पर वासुकि जी ने कहा..... 

आप लोगों की सलाहें अव्य्व्यहारिक  हैं। हमलोग चलकर अपने पिता कश्यप ऋषि से हीं इसका निवारण पूछते हैं। 

उनमे एक एलापत्र नामक नाग था,  उसने आगे  आकर कहा… 

"जमेजय का सर्प यज्ञ  रुकना असंभव है. इस विप्पती  का जो निवारण है , वो मैं बताता हूँ. जब माता  ने यह श्राप दिया था, उस  समय  मैं  डरकर  उन्हीं की गोद में छुप गया था. माता का  श्राप सुनकर उस वक़्त वहां ब्रह्मा जी आये और उन्होंने कद्रु के प्रशंसा की.... इस पर देवताओं  ने कहा..

'भगवन !  कठोरहृदया कद्रु  के सिवा और कौन ऐसी माता होगी जो अपने पुत्रों को हीं ऐसा श्राप दे दे और  आप इसका अनुमोदन हीं  करते हैं !! ऐसा क्यों है??  

इस पर ब्रह्मा जी ने कहा 

" देवगण! इस समय जगत में सर्प बहुत बढ़ गए हैं . वो डरावने, विषैले और क्रोधी स्वभाव वालें हैं। प्रजा के हित के लिए हीं मैंने कद्रू को नही रोका।। इस शाप से सर्फ क्रोधी विषैले और पापी सर्पों का नाश होगा, धर्मात्मा  सर्प सुरक्षित रहेंगे। यायावर  वंश में जरत्कारू नामक  ऋषि होंगे जिनके पुत्र आस्तिक इस यज्ञ को बंद करा देंगे ...."
देवताओं  के और पूछने पर ब्रह्मा जी ने ये बताया कि  जरत्कारू की पत्नी का नाम भी जरत्कारू हीं होगा और वो सर्पराज वासुकि की  बहन होगी।।।। 

".....तो सर्पराज वासुकि आपकी बहन जरत्कारू का विवाह जरत्कारू ऋषि से हीं होना चाहिए और जब भी जरत्कारू ऋषि भिक्षा में अपनी बहन का हाँथ मांगे आप उसी समय अपनी बहन उन्हें  दे दे ।।। "

एलापत्र के  ऐसा कहने पर सभी सर्प "ठीक है, ठीक है"  कहकर  प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने रास्ते चले गए और 
उसी दिन से सर्पराज वासुकि बड़े प्रेम से अपनी बहन जरत्कारू की रक्षा करने लगें । 

थोड़े दिनों के बाद समुन्द्र मंथन हुआ , जहाँ वासुकि ऋषि ने मंथन की नेति (रस्सी) बनना स्वीकार किया। उस समय उन्होंने देवताओं से ये एलापत्र वाली बात पूछी। इसपर देवता  वासुकि जी को ब्रह्मा जी के पास ले गए, और ब्रह्मा जी से वही बात दुबारा कहलवा दी.......


उसके बाद उन्होंने सारे सर्पों को जरत्कारू जी का पता  लगाने में लगा दिया और कहा 

"जैसे हीं आपको पता चले की जरत्कारू ऋषि विवाह करना चाहतें  हैं ,आप मुझे तुरंत इसकी सूचना दे । "







  




















      


No comments:

Post a Comment