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Saturday, January 3, 2015

उत्तंक और तक्षक Episode 4

तो तीसरा शिष्य था वेद।।।

उससे गुरु ने कहा कि .....

"तुम अभी कुछ दिन घर में हीं रहकर मेरी सेवा-शुश्रूषा करो।।  तुम्हारा भी कल्याण होगा।।।

 तो उसने बहुत दिनों तक गुरु के घर में रहकर ब्रह्मचर्य  व्रत का पालन करते हुए गुरु की बड़ी सेवा की. गुरु उसपे बैलों सा बोझ लाद देतें।।। 


आखिरकार एक दिन गुरु प्रसन्न हुए और उसे भी कल्याण और सर्वज्ञान का वार दिया.

अब देखिये बाद में वेद के भी तीन शिष्य हुए और उसमे से एक शिष्य था उत्तन्क ।।

चूँकि वेद  गुरु-घर के कष्ट को जानता थे तो उसने कभी भी अपने शिष्यों से किसी भी तरह का काम नहीं लिया. 

एक बार राजा जनमेजय ने वेद को अपना पुरोहित नियुक्त किया तो जब भी वो पुरोहिती के काम से कभी बहार-वाहर जाते तो अपने इसी शिष्य उत्तंक को घर की ज़िम्मेदारी दे कर जाते.

एक बार बाहर से लौट कर जब उन्होंने अपने शिष्य के सदाचार की बड़ी तारीफ सुनी तो उसे अपने उसे अपने पास बुलाया और कहा


"बेटा तुमने धर्मनिष्ट रहकर मेरी बड़ी सेवा की है तुम्हारा बड़ा कल्याण होगा अब तुम जाओ....."

उत्तंक ने उनसे कहा

" गुरु जी आप कुछ गुरु दक्षिणा मांगिये ।।।"

गुरु तो इन बातों का कष्ट जानते थे, उन्होंने मना कर दिया. 

उत्तंक ने फिर भी ज़िद किया तो गुरु वेद ने कहा.… 

"मुझे तो कुछ नहीं ना हो तो गुरुआनी से पूछ लो... "

उत्तंक मैडम के पास गया और उसने उनसे पुछा

" आप बताइये अगर मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ...."

गुरुआनी ने कहा.…

" तुम राजा पौष्य के पास जाओ और उनकी रानी का कुण्डल मांग कर लाओ।  मैं उसे पहन कर आज से चार दिन बाद ब्राह्मणो को भोजन परोसना चाहती हूँ। अब ऐसा कर दो तो तुम्हारा कल्याण होगा और नहीं तो नहीं।।। "

 तो उत्तंक चल पड़ा राजा पौष्य के पास. रास्ते में उसे एक आदमी बैल में चढ़ा हुआ दिखाई दिया। उस आदमी ने उत्तंक से कहा

तुम इस बैल का गोबर और मूत्र खा लो !!!! 

उत्तंक ने मना किया तो उसने कहा


"तुम्हारे गुरु ने भी इस  बैल का गोबर और मूत्र खाया है तो तुम भी बिना सोंचे बस खा लो.… "
 
ऐसा सुनकर उत्तंक ने गोबर खा लिया और जल्दी- जल्दी में बिना कुल्ला किये चल पड़ा 

और आखिरकार आ पहुँचे अपनी मंज़िल यानी राजा पुष्य की सभा मे.....

उत्तंक ने राजा पुष्य को आशीर्वाद दिया और अपने आने का मनतव्य बताया...

" मैं यहाँ आपसे कुछ मांगने आया हूँ।।। "

उसकी बात सुनकर राजा पौष्य ने उसे रनिवास में भेज दिया.


अन्तःपुर में रानी को ना पाकर  वो दुबारा राजा के पास पंहुचा और कुछ  उलाहने के भाव से कहा

"रानी तो अन्तःपर में हैं हीं नहीं।।।। "

राजा पुष्य ने कहा


" मेरी पत्नी बड़ी पतिव्रता है और कोई भी अशुद्ध मनुष्य उसे नहीं देख सकता..... "

उत्तंक को याद आया

" मैंने गोबर खाने के बाद चलते- चलते हीं आचमन कर लिया था. 

राजा ने कहा

" चलते चलते आचमन करना गलत है।।। "

तो उसने पुनः पूर्व दिशा में बैठकर ठीक से अपने हाँथ पाव धोएं और शुद्ध जल से पुनः आचमन किया और ऐसा कर कर वो पुनः अन्तःपुर में पहुँचा।।।


तब उसे वहां रानी दिख गयीं और रानी ने उसे अपना कुण्डल भी दे दिया और सावधान किया  कि

" ध्यान रहे!! नागराज तक्षक  ( आ गया!!) भी इस कुण्डल के पीछे है;  थोड़ा सावधान रहना …"

उत्तंक  कुण्डल लेकर चल पड़ा. 

रास्ते में चलते चलते उसने देखा की एक नग्न क्षपणक* (मतलब नंगा साधू) उसके पीछे लगा है जो कभी प्रकट होता है तो कभी छिप जाता है।।।।  ये नंगा क्षपणक और कोई नहीं तक्षक हीं था।।। वही उसके पीछे लगा था!!!
 
जैसे हीं थोड़ी देर बाद वो कुण्डल को रखकर पानी लाने गया,  तक्षक उतने में हीं कुण्डल लेकर भाग गया।

उत्तंक भी रुका नहीं,  उसने भी इंद्र* के वज्र की सहायता से तक्षक का नागलोक तक पीछा किया।।।

 आखिरकार डरकर तक्षक कुण्डल छोड़ कर भाग गया .

और फिर  उत्तंक ने गुरुआनी को कुण्डल देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया.

लेकिन उत्तंक तक्षक से बहुत नाराज़ था और वो बदले के इरादे से हस्तिनापुर पंहुँचा.

आपको याद होगा जनमेजय तक्षशिला पे चढ़ाई करने गए हुए थे मगर तब तक वो विजय  प्राप्त कर लौट चुके थें.*

 
उत्तंक ने जाकर राजा जमेजय को बताया कि

"महाराज इस तक्षक नाग ने हीं आपके पिता को डंसा था.  कश्यप ऋषि जो आपके पिता की रक्षा करने के लिए आ रहे थे उसे इसी ने वापस लौटा दिया था . आप एक यज्ञ कीजिये जिसमे ये सारे सर्प यज्ञ कुण्ड में गिरकर-जलकर भष्म हो जाये. 

आपके इस यज्ञ से इस विश्व को विषैले सर्पों  से छुटकारा मिलेगा और आपका बदला पूरा होगा और मुझे भी अतीव प्रस्सन्न्ता होगी.… 


और अब शुरू होती हैं सर्पों* की कहानी....

  

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