परम पराक्रमी पक्षिराज गरुड़ फिर बड़ी वेग के साथ अमृत के स्थान में प्रवेश करते हैं और देखते हैं कि एक बड़ा भारी लोहे का चक्र निरंतर अमृत कलश के चारो और घूम रहा है.
गरुड़ जी ने अत्यन्त सूक्ष्म शरीर धारण किया और वो चक्र के आरो के बीच से उसके अंदर प्रवेश कर गए.
वहां अमृत कलश के रक्षा के लिए दो बड़े भयंकर सर्प नियुक्त थे. उनकी लपलपाती जीभें, चमकीली आँखें और अग्नि की सी शरीर-कान्ति थी.
गरुड़ जी ने अपने चोंचों और पंजो से उन सर्पों को लहु-लुहान कर दिया और अपने परों को फैला कर उन्होने चक्र को चूर-चूर कर दिया.
फिर उन्होंने अमृत कलश अपने पंजे में उठाया और बड़ी वेग से आकश मार्ग में उड़ चले. उन्होंने स्वयं अमृत नहीं पीया। बस उसे लेकर सर्पों की तरफ उड़ चले . .…
उन्हें आकाशमार्ग में भगवान विष्णु के दर्शन हुए।। भगवान ने कहा.....
"गरुड़ तुम्हारे अंदर खुद अमृत पीने की इच्छा नहीं है, यह देख मुझे बड़ा आश्चर्यजनक हर्ष हुआ. मैं तुम्हे वर देना चाहता हूँ. तुम मनपसंद वस्तु मांग लो....."
गरुड़ ने कहा
"तो भगवान एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में रखिये और दूसरा मैं बिना अमृत पीये अमर हो जाऊं … !!"
भगवान बोले
"तथास्तु"
तब गरुड़ जी बोले ....
"भगवान मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ, आप भी मुझसे कुछ मांगिये… ।"
भगवान विष्णु ने कहा
"तुम मेरे वाहन बन जाओ "
गरुड़ ने कहा
"ऐसा हीं होगा…" और उनकी आज्ञा लेकर उन्होंने अमृत के साथ आगे की यात्रा की.....
उधर तब तक इंद्र को होश आ चुका था, और उन्होंने बड़े क्रोध में अपने वज्र से गरुड़ पे प्रहार किया.
गरुड़ वज्राघात होते हुए भी हँसते-हँसते बोले ……
"हे इन्द्र! तेरे वज्र की शक्ति से तो नहीं लेकिन जिनकी हड्डियों से यह वज्र बना है, उनके मान के लिए मैं अपना एक पंख गिराये देता हूँ.. ..।"
उस पंख को देख कर लोगों को बड़ा हर्ष हुआ और सबों ने कहा.…
"जिसका यह पंख है उस पक्षी का नाम सुपर्ण हो…।"
इंद्रा को बड़ा आश्चर्य हुआ.....
वो उनके पास गए और कहा
"हे पक्षिराज!! आपने में कितना बल है!!! मुझे बताएँ!! और साथ हीं मैं आपसे मित्रता भी चाहता हूँ.…
… और आप खुद तो अमृत पीते नहीं, अगर आपको इसकी जरूरत नहीं हो तो आप कृपया ये मुझे दे दें क्योंकि आप जिन्हे ये अमृत देना चाहते हैं, उन्हें अमृत मिलने से वो हमे बड़ा कष्ट देंगे.... "
गरुड़ जी ने कहा
"देवराज!! अमृत को ले जाने का एक कारण हैं!!!! मैं इसे किसी को पिलाना नहीं चाहता, मैं इसे ले जाकर जहाँ भी रखूँ, वहां से आप इसे उठा ले आइएगा….। "
देवराज उनकी बात से संतुष्ट हो गए और उन्होने गरुड़ जी से वर माँगने को कहा.……
गरुड़ सर्पों के छल से बड़े दुखी थे… उन्होंने उन्हें हीं अपना आहार बनाने की सोंची और वर माँगा …
"ये सर्प हीं मेरा आहार बने।। "
इंद्रा ने कहा "ऐसा हीं हो। "
इस तरह से गरुड़ अमृत लेकर सर्पों के पास पहुंचे और वहां उनकी माता भी थी. वहां पहुँचकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक यह कहा.…
" लो!! मैं अमृत ले आया, मगर इसे पीने में ऐसी जल्दी भी ना करो और पहले स्नान करके पवित्र हो जाओ, तब तक मैं इसे यहीं इस कुश पे रखे देता हूँ.…
और अब तुमलोगों के कथनानुसार मैं अमृत ले आया हूँ, इससे मेरी माता अब तुमलोगों के दासत्व से मुक्त होती है.… "
सर्पों ने स्वीकार कर लिया और वो बड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्नान के लिए चले गयें, तब तक इंद्र वहां से अमृत-कलश उठाकर स्वर्गलोक चले गये…
जब सर्प नहा कर लौटे तो उन्होंने देखा की अमृत कलश वहां पे नहीं है, तो उन्हें लगा की जो छल उन्होंने विनीता के साथ किया था, आज उन्हें उसी का फल वहां मिला है....
फिर उन्होंने सोंचा की अमृत कुश में रखा गया था तो हो सकता है उसका कुछ हिस्सा उसमे लग गया हो, और वो उन कुशों को हीं चाटने लगे, जिससे उनकी जिह्वा दो भागो में बट गयी। ।
चूंकि अमृत को कुश के ऊपर रखा गया था इसिलए उस दिन के बाद से कुश को पवित्र माना जाने लगा।।।।
गरुड़ जी ने अत्यन्त सूक्ष्म शरीर धारण किया और वो चक्र के आरो के बीच से उसके अंदर प्रवेश कर गए.
वहां अमृत कलश के रक्षा के लिए दो बड़े भयंकर सर्प नियुक्त थे. उनकी लपलपाती जीभें, चमकीली आँखें और अग्नि की सी शरीर-कान्ति थी.
गरुड़ जी ने अपने चोंचों और पंजो से उन सर्पों को लहु-लुहान कर दिया और अपने परों को फैला कर उन्होने चक्र को चूर-चूर कर दिया.
फिर उन्होंने अमृत कलश अपने पंजे में उठाया और बड़ी वेग से आकश मार्ग में उड़ चले. उन्होंने स्वयं अमृत नहीं पीया। बस उसे लेकर सर्पों की तरफ उड़ चले . .…
उन्हें आकाशमार्ग में भगवान विष्णु के दर्शन हुए।। भगवान ने कहा.....
"गरुड़ तुम्हारे अंदर खुद अमृत पीने की इच्छा नहीं है, यह देख मुझे बड़ा आश्चर्यजनक हर्ष हुआ. मैं तुम्हे वर देना चाहता हूँ. तुम मनपसंद वस्तु मांग लो....."
गरुड़ ने कहा
"तो भगवान एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में रखिये और दूसरा मैं बिना अमृत पीये अमर हो जाऊं … !!"
भगवान बोले
"तथास्तु"
तब गरुड़ जी बोले ....
"भगवान मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ, आप भी मुझसे कुछ मांगिये… ।"
भगवान विष्णु ने कहा
"तुम मेरे वाहन बन जाओ "
गरुड़ ने कहा
"ऐसा हीं होगा…" और उनकी आज्ञा लेकर उन्होंने अमृत के साथ आगे की यात्रा की.....
उधर तब तक इंद्र को होश आ चुका था, और उन्होंने बड़े क्रोध में अपने वज्र से गरुड़ पे प्रहार किया.
गरुड़ वज्राघात होते हुए भी हँसते-हँसते बोले ……
"हे इन्द्र! तेरे वज्र की शक्ति से तो नहीं लेकिन जिनकी हड्डियों से यह वज्र बना है, उनके मान के लिए मैं अपना एक पंख गिराये देता हूँ.. ..।"
उस पंख को देख कर लोगों को बड़ा हर्ष हुआ और सबों ने कहा.…
"जिसका यह पंख है उस पक्षी का नाम सुपर्ण हो…।"
इंद्रा को बड़ा आश्चर्य हुआ.....
वो उनके पास गए और कहा
"हे पक्षिराज!! आपने में कितना बल है!!! मुझे बताएँ!! और साथ हीं मैं आपसे मित्रता भी चाहता हूँ.…
… और आप खुद तो अमृत पीते नहीं, अगर आपको इसकी जरूरत नहीं हो तो आप कृपया ये मुझे दे दें क्योंकि आप जिन्हे ये अमृत देना चाहते हैं, उन्हें अमृत मिलने से वो हमे बड़ा कष्ट देंगे.... "
गरुड़ जी ने कहा
"देवराज!! अमृत को ले जाने का एक कारण हैं!!!! मैं इसे किसी को पिलाना नहीं चाहता, मैं इसे ले जाकर जहाँ भी रखूँ, वहां से आप इसे उठा ले आइएगा….। "
देवराज उनकी बात से संतुष्ट हो गए और उन्होने गरुड़ जी से वर माँगने को कहा.……
गरुड़ सर्पों के छल से बड़े दुखी थे… उन्होंने उन्हें हीं अपना आहार बनाने की सोंची और वर माँगा …
"ये सर्प हीं मेरा आहार बने।। "
इंद्रा ने कहा "ऐसा हीं हो। "
इस तरह से गरुड़ अमृत लेकर सर्पों के पास पहुंचे और वहां उनकी माता भी थी. वहां पहुँचकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक यह कहा.…
" लो!! मैं अमृत ले आया, मगर इसे पीने में ऐसी जल्दी भी ना करो और पहले स्नान करके पवित्र हो जाओ, तब तक मैं इसे यहीं इस कुश पे रखे देता हूँ.…
और अब तुमलोगों के कथनानुसार मैं अमृत ले आया हूँ, इससे मेरी माता अब तुमलोगों के दासत्व से मुक्त होती है.… "
सर्पों ने स्वीकार कर लिया और वो बड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्नान के लिए चले गयें, तब तक इंद्र वहां से अमृत-कलश उठाकर स्वर्गलोक चले गये…
जब सर्प नहा कर लौटे तो उन्होंने देखा की अमृत कलश वहां पे नहीं है, तो उन्हें लगा की जो छल उन्होंने विनीता के साथ किया था, आज उन्हें उसी का फल वहां मिला है....
फिर उन्होंने सोंचा की अमृत कुश में रखा गया था तो हो सकता है उसका कुछ हिस्सा उसमे लग गया हो, और वो उन कुशों को हीं चाटने लगे, जिससे उनकी जिह्वा दो भागो में बट गयी। ।
चूंकि अमृत को कुश के ऊपर रखा गया था इसिलए उस दिन के बाद से कुश को पवित्र माना जाने लगा।।।।
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