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Sunday, July 19, 2015

लाइन आ गया

कल वही हुआ जो अक्सर हमलोगों के साथ होते आया है। मोहल्ले के सारे घरों में बिजली थी, सिवाय हमारे घर के। और जो भी इस बात का मर्म जानतें हैं, उन्हें पता होगा यह कितना बैचैन कर देने वाला समय होता है!!!

और उस वक़्त आप किसी भी कीमत में अपने घर में बिजली चाहतें हैं!! हालांकी इस बार बिजली हमारे पुरे फेज की नहीं थी मगर फिर भी ऐसा फेज हमेशा हमारा वाला फेज हीं क्यों होता है यार!!

और ऐसे मौके पे मेरे अन्दर एक सवाल आया... 

"अरे हमलोगों के यहाँ दोनों फेज का लाइन नहीं है क्या !!! "

क्योंकी अक्सर हीं, कम से कम हमलोग इस तरह के शुद्ध सरकारी privileges से मरहूम तो नहीं हीं रहते थे कभी भी!!

तब इस फेज और बिजली के चक्कर में हमलोग बिजली ऑफिस गएँ।

इस छोटी सी यात्रा ने मुझे, बिजली के साथ विकास के नाते की जो एक अकादमिक बहस है, उसको थोडा अपने lived एक्सपीरियंस से जोड़ कर देखे जाने की एक अद्भुत प्रेरणा दी है।

बिजली का ज़िन्दगी में क्या महत्व है, इस बात को मैं थोड़ी ज्यादा गंभीरता से समझने का दावा रख सकता हूँ।

मैंने अपनी ज़िन्दगी में ठीक-ठाक समय, उम्र के करीब हर पड़ाव में, चाहे बचपन हो, किशोरावस्था हो या जवानी, ठीक-ठाक समय हर तरह के जगहों में बिताया है चाहे जहाँ … 

1. चौबिसों घंटे बिजली है!!!

2. अथवा जहाँ बिजली हैं हीं नहीं!!! मतलब पोल वोल भी नहीं है, और दूर-दूर तक पोल नहीं हैं!!! मतलब लालटेन, पेट्रोमेक्स, डीबरी वगैरह ज़िन्दगी का एक हिस्सा है। और एक ज़माने में यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ बिहार में ऐसे बड़े-बड़े क्षेत्र थे जहाँ या तो बिजली के पोल हीं नहीं थे अथवा थे भी तो उनमे उद्घाटन के बाद फिर जो ट्रांसफार्मर उड़ा तो कभी लाइन आयी हीं नहीं दुबारा। लालू ने ऐसे हीं लालटेन छाप से हंगामा नहीं मचा दिया था बिहार में !! 

3. जहाँ ठीक-ठाक बिजली रहती है, टाइम पे लोड शेडिंग होती है, जैसे 6-7 शाम या 8-10 सुबह।।

4.  या ऐसी जगह जहाँ बिजली ठीक-ठाक है, कोई नियम नहीं हैं, जा भी सकती है पर अक्सर रहती है पर कोई गारेन्टी नहीं है ,

5. या जहाँ 24 घंटे में 2-6 घंटे बिजली है, वैसा जैसे लगता है गुजरात था मोदी जी के पहले। क्योंकि उनको मैंने अक्सर ये कहते सुना कि कैसे उनके मुख्यमंत्रित्व काल के प्रारंभ में लोग कहा करते थे...

"मोदी जी कुछ करो या न करो , मगर रात में जब खाना खाने बैठे , तब तो तो बिजली हो, इतना तो कर दो"।।। 

तो वैसी जगह जहाँ बिजली ज्यादातर नदारद हीं रहती है।।।

इन सभी जगहों की एक अपनी दुनिया है।

पता नहीं कितने लोगों को ये थ्रिलिंग लगेगा कि जब मैच होना हो तो भारत जीते, या टीम में कौन खेल रहा है या किसको खेलना चाहिए से परे भी एक चिंता है और वो है… 

यार!! मैच के समय कहीं लाइन ना काट जाए....!!


एक दर्दनाक अनुभव जो याद है, वो है हीरो कप का सेमी फाइनल। तेंदुलकर का वो ओवर!! गया में थे हमलोग उस वक़्त। ए पी कॉलोनी मे।   

एक अलग मुसीबत थी। लाइन थी, मगर हमलोगों के घर या फेज में वोल्टेज हीं इतना ज्यादा था कि आप कोई इलेक्ट्रिक एप्लायंसेज यहाँ तक की बल्ब भी नहीं जला सकते थे!!

आखिरी ओवर, वो क्लाइमेक्स वाला, आते-आते आखिरकार स्टेबलाइजर ने जवाब दे दिया, और फाइनली टीवी बंद हो गया।  

दिन होता तो कहीं दूसरों के घर भाग जाते पर घर में जेल कि तरह सूर्योदय से सूर्यास्त वाला नीयम था, और रात के दस-वस  बज रहे होंगे!!  

रेडियो का खोजइया शुरू हुआ !! और अगर खराब निकला तो अलग डांट !!

देखिये और जगहों में मतलब नॉन ऑफिसर कॉलोनी वाले मकानो में लाइन है, उनका वोल्टेज ठीक है, हमलोग अँधेरे में, मोमबत्ती की रोशनी को आप अँधेरा हीं कहेंगे, में रेडियो पे हैं और वो भी एक जमाने के बाद खुला है और जल्दी-जल्दी में स्टेशन पकड़वा लेना भी मज़ाक नहीं हैं।

अब यहाँ जिनके पास टीवी है, वो लाइव देख रहें हैं, बीट होता और वो झट से देख लेते की बीट हो गया, और हल्ला शुरू होता और हम तो कमेंटेटर के कमेंट के मोहताज है!! 

अगल बगल हल्ला हो जाता, जैसे हीं बीट होता, टीवी पे लाइव दिखायी जा रही थी, हमें कमेन्ट्री और आस -पास के हल्लो में से दोनों जगहों से इनफार्मेशन मिल रही थी। 

तेंदुलकर ने 6 शानदार बाल डाले।  आपको याद हो तो मैकमिलन खड़ा रह गया दुसरे छोड़ पे और भारत जीत गया। खुशी की बात थी मगर हमारा हार्ट फेल नहीं हुआ, ये काम आश्चर्य भी नहीं है।

या जब एक बार घाटशिला में जब ट्रांसफार्मर उड़ गया था, तो करीब दो महीने तक एक शहर में हम बिना लाइन के थे। शाम को जब हमलोग क्रिकेट खेल के वापस घर आतें तो थे तो हमे पता था कि लाइन नहीं आएगी। 

मतलब अब ऐसा नहीं था कि आप शाम में घर लौट के आएं और लाइन कटा हुआ है बोलके आपको और थोड़ी देर बाहर आस पास में हीं कॉलोनी में थोड़ा और आवारागर्दी करने का मौका मिल गया हो। 

ऐसा नहीं होगा क्योंकि बिजली तो आनी हीं नहीं है, इस कारण जल्दी लौटना बल्कि अब एक जरूरत थी। घर आओ!! लालटेन वालटेन का हाल देखो !! जी सर लालटेन!!  

लालु यादव का चुनाव चिन्ह गरीबी की नहीं, प्रतिष्ठा का सिंबल था वो। अपना अलग लालटेन होना टेबल लैंप होने से ज्यादा बड़ी बात थी।   

शुरू में बहुत हल्ला हुआ। तरह तरह के अफवाह उड़े !! 

कल बन जाएगा, आज टाटा से देख के गया है, HCL वाला लोग दे रहा है से लेकर के TV टावर वाला दे रहा है, ये-वो सब कुछ !! बस PIL का वैसा ज़माना नहीं था, मेरे ख़याल से 94 ईश्वी की बात  है, नहीं तो हाई कोर्ट दे रहा है वाला हल्ला भी हो जाता!! 

खैर कुछ नहीं हुआ और 20-25 दिनों के बाद सभी लोग हार गएँ। यहाँ तक की अफवाह फैलाने वाले भी हार कर चुप हो गएँ, जो बिजली ना होने के कारण जो अक्सर हीं एक उदासी छाई रहती थी वो उदासी भी लोग भूल गए!!

मतलब लोग भूल गएँ की बिजली भी कोई चीज़ होती है. सचमुच इंसानो के एडजस्ट और एडाप्ट करने के क्षमता बड़ी आश्चयर्जनक और अविश्वासनीय है!!

इन्वर्टर का तो सवाल हीं बेकार है, घर में थी भी नहीं और जिनकी थी भी, बिजली तो पिछले एक महीने से नहीं थी, वो कब के बैठ चुके थे …

और घाटशिला शहर, पता नहीं अभी कैसा है, उस वक़्त तीन हिस्सों में बटा था। 

एक था माइनिंग कॉपर कंपनी वाला इलाका, जहाँ २४ घंटे बिजली-पानी थी, दूसरा बाजार इलाका और तीसरा फुलडूँगरी; जहाँ पे कोर्ट और ब्लॉक ऑफिस थी, सरकारी ऑफिस वाला इलाका मतलब, जहाँ अफसर कॉलोनी थी, जहाँ हमलोग रहते थे, और ट्रांसफार्मर सिर्फ फुलडूँगरी इलाके का, जहाँ हमारा घर था, का उडा था. वैसे तो फुलडूँगरी बड़ा इलाका था, मगर बाजार वाला इलाका नहीं था.

अब देखिये चूंकि ज्यादातर इलाका जो इस उड़े हुए ट्रांसफार्मर की सीमा क्षेत्र में आता था, वो ऑफिस वाले थे, जहाँ दिन में लाइट की जरूरत थी नहीं, उस वक़्त टाइप राइटर का ज़माना था, प्रिंट आउट का नहीं !! पता नहीं ज़ेरॉक्स-वेरोक्स कैसे होता था, या पता नहीं लोग कार्बोन कॉपी या अठारहवीं सदी में पूरी तरह से लौट कर "नक़ल" पे उतर आएं थे, याद नहीं अब!! बात असली वो नहीं है यहां। 

बाजार का उड़ता तो दूकान वाले लोग या जनरल मोहल्ले वाले भी खटा-खट चंदा इकठ्ठा करके सामूहिक रिश्वतखोरी के लिए पैसा जुगाड़ कर लेते!! मगर यहाँ तो ज्यादातर सरकारी ऑफिस वाले थे, अब वहां पे जो कुछ एक लोकल पब्लिक थी भी वो अब कैसे मतलब इन सरकारी अधिकारियों से चंदा मांगे !!

मुसीबत बड़ी थी।  

क्रमशः !!! 

Saturday, July 18, 2015

मतलब से मतलब

क्या हमारी कोई भाषा है। 
क्या ये भाषा यहाँ पर मेरी होनी चाहिए थी।
क्या हमरी लिखने से उसका मतलब मेरी हो जाता।
क्या आँखों की भाषा होती है 
और अगर होती है
तो क्या उसका भी व्याकरण होता है।
उसका पाणिनि कौन है ?

क्या बकवास है और क्या नहीं
इसका अंतर क्या मतलब से निकलता है।
क्या मतलब के दो मतलब नहीं होते ।
जब हम किसी बात का मतलब निकालते हैं
तो उस वक़्त मतलब का क्या मतलब होता है।
क्या यह एक कविता है जो हम गुनगुना नहीं सकते।

‎चूहा

तुम्हारे जो पर थे वो कल कुतर दिए हैं मैंने 
फुदकने के अलावा तुम्हारे पास अब रखा क्या है। 

आसमान में तो उड़ सकते नहीं हो तुम अब 
और जमीन पे चलना तो सीखा नहीं है तुमने ।।

"य पश्यति सः पश्यति"

"य पश्यति सः पश्यति"
जो ये देखता है वह देखता है ।

देखने का मतलब क्या होता है ।
तुम कुर्सी देखते हो 
या तख्ते-ताउस देखते हो।

तुम राम देखते हो
या राजा राम देखते हो ।
तुम राम का नाम देखते हो
या उसका काम भी देखते हो ।

टीवी में भी हम देखते हैं
और टीवी को भी देखते हैं।
अगर तुम आँखों से देखते हो तो हम पैरो से चलते हैं। 

फिर कहीं पहुँचने का क्या मतलब हुआ
गाडी खरीदने का फिर क्या मतलब हुआ ।

देख लो

पहले बारिश होती थी
और हम बहती हुई नालियों में कागज की कश्ती चलाते थे
अब ग्रीन हो गए हैं
और रेनी डे में एनएफएस की सड़को में फेरारी चलाते हैं.

पहले हम बच्चे थे
और बोर हो जाने पर बैठकर ला मिजरेबल पढ़ते थे
अब हम बड़े हो गए हैं
और बोर होकर फेसबुक में बैठकर कविता लिखते हैं.

कोई बात नहीं यह कि
जो मैं ये कहता रहता हूँ कि सब बदल गया है
कहने से होता क्या है
जो बदलना है वो तो वैसे भी बदल हीं जाता है.

देखो मैंने बोल हीं दिया
और अपने सोंच को ज़माने के सामने खोल हीं दिया
तुम समझो या नासमझो
तुम्हारे एक सवाल का जवाब तो मैंने दे हीं दिया.


क्रिकेट मैच

शोएब अख्तर के करियर की पहली गेंद थी वो सचिन को। तेंदुलकर बस उतरा हीं था।  मुझे याद है। मैं शर्मा अंकल के यहाँ था। क्रिकेट खेलते तो थे हीं और सब लोगों की तरह देखता भी था। पांचवी में पढता था तब।

मतलब टीवी में क्रिकेट देखने की समझ आ गयी थी।

घर में टीवी थी मगर ब्लैक एंड वाइट। उनके यहाँ थी कलर टीवी। और कलर टीवी में मैच देखने के लालच में उनके यहाँ चला आया था।

जो लोग जानते हैं, वो तो जानते हीं है कि क्या हुआ। उस पहली हीं गेंद पे सचिन तेंदुलकर क्लीन बोल्ड !!

सब लोग सन्न रह गए। स्टेडियम और घर दोनो जगह,एक बार में सन्नाटा छा गया। बच्चा था, एक बात याद आयी तो, मैं थोडा हल्का मुस्कुरा पड़ा।

थोड़ी देर के बाद शर्मा अंकल भी हँसे और अब पता है की वो तब अपने दुःख को छिपा रहे थे, लेकिन उस वक़्त लगा कि शायद वो सही में हंस रहे हैं। 

उन्होंने चिंटू भैया को, जो छठे क्लास में पढ़ते थे, उनको चिढ़ाना शुरू कर दिया...

अरे कभी नहीं जीत पायेंगे ये पाकिस्तान टीम से...

और मैं भी बोल पड़ा...

अल्ताफ भैया भी बोले थे, देखना शोएब पहले बाल पे ले लेगा तेंदुलकर को...

मेरी बात के बाद मुझे लगा थोडा और सन्नाटा छा गया...

तेंदुलकर आउट हो चूका था। माहौल आलरेडी बहुत ग़मगीन था। और तभी शायद खुदा के खैर से हीं, उसी वक़्त दीदी आ गयी बुलाने। और वही लाइन बोली जिसे सुनकर अक्सर सारे हिंदुस्तान के बच्चे दहशत में आ जाते हैं...

चलो पापा बुला रहे हैं...

मैं बाहर निकला और हम घर की तरफ चल दिए।

बिलकुल घर के पास पंहुच कर याद आया क़ि, मामु ने जो एक टोपी दी थी मुझे, जो मैं ले के आया था, वो वहीँ कुर्सी पे छूट गयी थी।

वही लेने के लिए लौटा कि दरवाजे पे  सुनता हूँ, पिंटू भैया, जो दसवीं में थे शायद उस वक़्त, जोर-जोर से बोल रहें थे...

साला मियन्डी !!! बच्चा-बच्चा कट्टर होता है इन लोगों का...देखो दो बित्ता का बच्चा का टोपी देखो !!!

आंटी बोली...

अरे जा के टोपिया दे आओ उसका...

हम नहीं छुएंगे टोपी उसका.. जला दो साला टोपी उसका...

मुझे लगा  पिंटू भैया कहीं सही में ना जला दे टोपी कि मैने घंटी बजाने के लिए हाँथ बढ़ाया। तभी आंटी फिर बोली...

अरे चिंटू विकेटवा से उठा के उधर कोना में रख दो..अपने आके ले जाएगा...

मैंने घंटी बजायी। दरवाजा खुला और एक बार फिर सन्नाटा छा गया ...

अब अंकल बोले…

अरे आओ बैठो राजा, देखो दो और विकेट गिर गया... केतनो कर लो चिंटू ..नहीं जीत पाओगे पाकिस्तान से!!

पापा बुला रहे हैं अंकल। टोपी छूट गयी थी... मामू लाये थे लखनऊ से...

मैं लौट गया। दिल थोडा भारी लग रहा था। पता नहीं उन बातों को मैं समझा इस कारण या इसलिए कि दो विकेट और गिर गए थे इस कारण...

घर लौटा, तो देखा तो खैर स्कोर वही था...

वैसे सारे बैट्समैन तो जा हीं चुके थे। टीम आल आउट के करीब थी और पापा भी जोर जोर से बोल रहे थे, लेकिन हंस कर नहीं बल्कि थोडा खीज कर....

बुजदिल साले सिर्फ बांग्लादेश के सामने शेर हैं.. तेंदुलकर गया नहीं कि सब बर्बाद। नाम हँसा के रख देतें हैं ये लोग हमेशा। बंद करो टीवी... और कहाँ गए थे राजा... खबरदार जो कहीं दोपहर में बाहर गए हो...वहीँ से मारते मारते लाएंगे...अरे चाय बनाओ...

ख़ीज गुस्से में बदल चुका था... अम्मी चाय बनाने के लिए चली गयी और मैंने कोने से फिर टीवी की और देखा। 

अज़हरुद्दीन अभी तक टिका हुआ था। मुझे उस पर भरोसा था...लेकिन वो भी गया 205 पे... और 212 में इंडिया आल आउट...