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Monday, August 22, 2016

इस वीकेंड की मूवी थी Happay Bhag Jaayegi. मुझसे किसी ने पुछा कि कैसी थी मूवी? अब हम सभी जानते हैं कि सवाल में दम तो जवाब से आता है।

और वैसे देखा जाए तो लोग जितनी आसानी से ये सवाल पूछ लेते हैं कि कैसी है फिल्म, कभी कभी मुझे शक़ होता है कि वो जानते भी हैं या इतने नादान हैं कि ये भी नहीं जानते कि ये बताना कि "कैसी थी मूवी थी " अपने आप में एक धंधा है।  मतलब भाइयों इससे लोगों कि रोजी रोटी चलती हैं। ऐसे हीं सड़क में खड़े होके बोल देने वाली चीज़ नहीं है चाट टाइप से कि "अच्छा है"।    

बीच में तो इस सवाल के जवाब में कि कैसी थी मूवी, मैंने बोलना शुरू कर दिया था दो स्टार है या तीन स्टार हैं, लेकिन मुझे शक़ हुआ कि लोग शायद जान हीं नहीं रहें हैं कि मैं क्या बोल रहा हूँ. वैसे तो प्रोफेसर होने के नाते मैं इस बात का आदी हूँ कि मैं बोलू और लोग न समझे, पर फिर भी हम बोलना तो छोड़तें नहीं।

मतलब लोग शायद रिव्यु पढ़तें हीं नहीं हैं या और खुल के बोलूं तो शायद उन्हें पता भी न हो कि रिव्यु होता है, भरसक उन्होंने कभी रिव्यु पढ़ा भी नहीं हो। हालाँकि अभी भी इतने अज्ञानी लोग हो ऐसा संभव नहीं है।

लेकिन अगर बैठे बैठे आप आस पास रिसर्च (मैं रिसर्च शब्द का बहुत हीं गन्दा इस्तेमाल कर रहा हूँ, कृपया माफ़ कर दे ) करें, तो शायद आप पाएंगे कि आपके आस पास बहुत सारे लोग वैसे होंगे जिन्होंने सही में कभी भी कोई मूवी रिव्यु, अब आगे से मैं समीक्षा बोलूंगा, पढ़ा हीं नहीं होगा।

बहुत आश्चर्य कि बात नही हैं है क्योंकि रिव्यु न्यूज़पेपर में शनिवार को आता है और संडे को स्कूल बंद रहता है, तो बहुत सारे लोग जिनको स्कूल के कारण न्यूज़पेपर पढ़ने की आदत है या थी, वो लोग तो ऐसे हीं साफ़ हो गए। फिर सिनेमा भारत में अपने आप में पढ़ाई का विलोम शब्द माना जाता हैं, जैसे कि उपन्यास कोर्स की किताब का, ऐसे में फिर बहुत कम हीं लोगों होंगे जिनके घर में फिल्म पत्रिकाएं आती होगी। अपने नानीघर के अलावा मैंने अपने आस पास तो नहीं हीं देखा है।

नानीघर जाने एक उत्साह यह भी होता था कि पुरानी फिल्म पत्रिकाएं पढ़ने को मिलेगी। फ़िल्मी पत्रिकाओ  कि एक अपनी दुनिया है। जहाँ तक मुझे लगता है कि फ़िल्मी पत्रिकाएं सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिकाओं में होंगी, मगर फिल्म पत्रिकाओं पर फिर कभी।

अभी Happy Bhag Jaayegi...

तो मैंने बोला कि अगर कभी कभी मूवी देखते हो, मतलब कोई ओकेजन टाइप वाले हो, जैसे बर्थडे है, छुट्टी है तो मूवी देख लेते हैं, या सबसे वर्स्ट टाइप  का क्राउड कॉलेज के दोस्तों का ग्रुप , तो ठीक है देख सकते हो, देखा जाए तो एक परफेक्ट 3 स्टार मूवी है।  मगर अगर आप रेगुलर पार्टी हो तो शायद हल्का अफ़सोस लगे क्योंकि स्क्रिप्ट बहुत स्ट्रांग था।

अच्छी स्क्रिप्ट थी।  स्टार लेके बनातें जैसे वेलकम टाइप तो, अच्छी कल्ट टाइप की हो सकती थी। पर फिर यह भी हो सकता था कि स्टार के साथ और खास कर इसमें तो मल्टीस्टार का स्कोप था (वेलकम टाइप), तो वो स्टार स्किप्ट एडजस्टमेंट का भी चक्कर हो सकता है, डायरेक्शन (बेसिकली स्टार कण्ट्रोल) फिर उसके बात बहुत सॉलिड चाहिए।

जैसे जब डायना पेंटी पहली बार पाकिस्तान पंहुचती है, तो वो घर वाला सीन बहुत अच्छा सीन है, अभय या लड़की भी उसको पूरा खींच नहीं पाएं। अब खींच नहीं पाए मतलब, एक स्टार सीन को एक अलग  लेवल पे जाता है, पर अभय स्टार नहीं है। जैसे देखिये पीयूष मिश्रा को, वो जमाया हैं , पर क्या पीयूष मिश्रा स्टार हैं ? क्यों नहीं।  नाना पाटेकर स्टार नहीं है ??  

P.S. हिंदी में लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि औसत हिंदी में पढ़ने वाले लोगों की बौद्धिक क्षमता इंग्लिश में पढ़ने वालों से ज्यादा अच्छी होगी, क्योंकि अब ज्यादातर लोग अंग्रेजी मीडियम वाले हैं, तो उनके लिए अंग्रेजी अक्षरों को पढ़ना आसान है, क्योंकि अक्षर ज्यादा परिचित अंग्रेजी वाले हैं, मगर अगर आप थोड़ा आराम से हिंदी पढ़ ले रहें और आप पच्चीस के अंदर हैं तो इसका मतलब है कि आपको पढ़ने की आदत है, और यह तभी संभव है जब आपने कोर्स के बाहर पढ़ाई की है, फिर तो निश्चित रूप से आपकी बौद्धिक क्षमता अच्छी होगी, इस थीम पे अब आगे...