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Saturday, October 24, 2015

भरत Mahabharata Episode 20

वैशम्पायन जी कहते हैं...

समय आने पर शकुंतला के गर्भ से एक पुत्र हुआ। यह बालक बचपन से हीं बड़ा बलिष्ट था।  उसके ललाट चौड़े, कंधे सिंह जैसे, दांत नुकीले और उसके दोनों हाथो में चक्र था।  महर्षि कण्व ने विधि पूर्वक उसके जात कर्म आदि संस्कार किये।

मात्र छह वर्ष की आयु में हीं वह सारे जंगली जानवरों, हाथी-सिंह आदि को आश्रम के वृछो से बाँध देता।  कभी उनके दांत गिनता, कभी उन्हें प्रेम से सहलाता और कभी उनकी सवारी करता।  दिखने में तो वो बिलकुल देवकुमार लगता।  आश्रमवासियों ने उसके द्वारा सारे हिंसक जंगली जानवरों का दमन होते देख कर उसका नाम सर्वदमन रख दिया।

बालक के अलौकिक कर्म को देख महर्षि कण्व ने एक दिन शकुंतला को बुलाया और कहा

यह बालक अब युवराज बनने के योग्य हो गया है।  

फिर उन्होंने शिष्यों को बुलाकर कहा

तुमलोग शकुंतला और बच्चे को इनके घर पंहुचा आओ।  विवाहित स्त्री का बहुत दिनों तक मायके में रहना कीर्ति, चरित्र और धर्म का घातक है। 

शिष्यों ने आज्ञानुसार उन्हें हस्तिनापुर पंहुचाया और फिर वापस लौट गए।

सूचना और स्वीकृति के बाद शकुंतला राज्य सभा में पंहुची।

शकुंतला ने सभा में पंहुच कर प्रेम पूर्वक निवेदन किया... 

महाराज ! यह आपका पुत्र है, अब आप अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए इसे युवराज बनाइये।  

इस पर राजा दुष्यंत ने कहा

 अरी दुष्ट तापसी!! तू किसकी पत्नी है !! मुझे तो कुछ भी स्मरण नहीं है !! तेरे साथ मेरा धर्म अर्थ काम कोई सम्बन्ध नहीं है !! तू जा ठहर अथवा जो तेरी मौज में आये कर !!

ऐसा सुनकर शकुंतला बेहोश सी होकर खम्भे की तरह निस्चल खड़ी रह गयी।

उसकी आँखे लाल हो गयी, होठ फड़कने लगे, और दृष्टि टेढ़ी कर वो दुष्यंत की ओर देखने लगी।  थोड़ी देर ठहर कर दुःख और क्रोध से भरी शकुंतला ने कहा …

महाराज ! आप जान बूझकर ऐसी बाते क्यों कर रहे हैं ! ऐसा तो नीच पुरुष करते हैं ! आपका ह्रदय कुछ और कह रहा है और आप कुछ और कह रहे हैं। यह तो बहुत बड़ा पाप है।  आप ऐसा समझ रहे हैं कि उस समय मैं अकेला था और इसका कोई साक्षी नहीं है, ऐसा समझ कर आप यह बात कह रहे हैं  मगर आप यह न भूले कि परमात्मा सबके ह्रदय में बैठा है।  वो सबके पाप पुण्य को जानता है।  

पाप करके ये समझना कि मुझे कोई नहीं देख रहा है, घोर अज्ञान है। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, ह्रदय, यमराज, दिन, रात संध्या, धर्म - ये  सब मनुष्य के शुभ अशुभ कर्मो को जानते हैं।  जिस पर हृदयस्थित कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञ परमात्मा संतुष्ट रहते हैं, यमराज उनके पापों को स्वयं नष्ट कर देते हैं।  परन्तु जिसका अंतर्यामी संतुष्ट नहीं, यमराज स्वयं उसके पापों का दंड देते हैं।  

अपनी आत्मा का तिरस्कार कर जो कुछ का कुछ कर बैठता है, देवता भी उसकी सहायता नहीं करते, क्योंकि वह स्वयं भी अपनी सहायता नहीं करता।
  
मैं स्वयं आपके पास चली आयी हूँ, इसलिए आप साधारण पुरुषों की तरह भरी सभा में मेरे जैसी पतिव्रता स्त्री का तिरष्कार कर रहें हैं। अगर आप मेरी उचित याचना पे ध्यान नहीं देंगे, तो आपके सर के सौ टुकड़े हो जाएंगे !!

राजन ! मैंने तीन वर्ष तक इस बालक को अपने गर्भ में रखा था, इसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि ये बालक सौ अश्वमेघ यज्ञ करेगा।  

दुष्यंत  ने कहा … 

शकुन्तले ! मुझे नहीं याद मैंने तुमसे कोई पुत्र उत्पन्न किया था। स्त्रियां तो प्रायः झूठ बोलती हैं। तुम्हारी बात पे कौन विश्वास करेगा।  तुम्हारी एक बात भी विश्वास करने योग्य  नहीं है। मेरे सामने इतनी बड़ी ढिठाई !! कहाँ विश्वामित्र, कहाँ मेनका, और कहाँ तेरे जैसी साधारण नारी !! चली जा यहाँ से !! इतने थोड़े दिनों में भला यह बालक साल के वृछ जैसा कैसे हो सकता है ! जा जा !! चली जा यहाँ से !! 

शकुंतला ने कहा

राजन !! कपट न करो !  चाहे सारे वेदों को पढ़ लो, सारे तीर्थो में स्नान कर लो मगर फिर भी सत्य उससे बढ़कर है। सत्य स्वयं परमब्रह्म परमात्मा है।  सत्य हीं सर्वश्रेष्ठ प्रतिज्ञा है।  तुम अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़ो ! तुम इसे स्वीकार करो अथवा नहीं, यह बालक हीं सारे पृथ्वी पर राज्य करेगा।  

इतना कह कर शकुंतला सभा से निकल पड़ी।  तभी वहां आकाशवाणी हुई। 

शकुंतला की बात सत्य है।  तुम शकुंतला का अपमान मत करो।  औरस पुत्र तो पिता को यमराज से भी चुरा लाता है।  तुम अपने पुत्र का भरण पोषण करो। तुम्हे हमारी आज्ञा मान कर ऐसा हीं करना चाहिए। तुम्हारे भरण- पोषण के कारण इसका नाम भरत होगा।  

आकाशवाणी सुनकर दुष्यंत आनंद से भर गए।  उन्होंने मंत्रियों और पुरोहितों को कहा... 

आपलोग कानो से देवताओं की वाणी सुन ले।  मैं ठीक-ठीक जानता और समझता हूँ कि यह मेरा हीं पुत्र है, मगर अगर मैं इसे सिर्फ शकुंतला की बाते सुनकर अपना लेता, तो सारी प्रजा इस पर संदेह करती और इसका कलंक नहीं छूट पाटा।  इसी उद्देस्य से मैंने शकुंतला का इतना अपमान किया।  

अब उन्होंने बच्चे को स्वीकार कर लिया। उसके सारे संस्कार करवाये।  उन्होंने पुत्र का सर चूमकर उसे हृदय से लगा लिया।

 दुष्यंत ने  धर्म के अनुसार अपनी पत्नी का स्वागत किया और कहा... 

देवी !! मैंने तुम्हारे मान को रखने के लिए हीं तुम्हारा इतना अपमान किया।  सबलोग तुम्हे रानी के रूप में स्वीकार कर ले इसीलिए मैंने तुम्हारे साथ क्रूरता के साथ व्यवहार किया।  अगर मैं सिर्फ तुम्हारी बात  अपना लेता तो लोग समझते कि मैंने मोहित होकर तुम्हारी बात पे भरोषा कर लिया। लोग मेरे पुत्र के युवराज होने पे भी आपत्ति करते।  मैंने तुम्हे अत्यंत क्रोधित कर दिया था, इसलिए प्रणयकोपवश तुमने मुझसे जो अप्रिय वाणी कही उसका मुझे कुछ भी विचार नहीं है।  हम दोनों एक दुसरे के प्रिय हैं।  

ऐसा कह कर दुष्यंत ने अपनी प्राण-प्रिया को भोजन वस्त्र आदि से संतुष्ट कर दिया।

समय आने पर भरत का युवराज पद पर अभिषेक हुआ।  दूर दूर तक भरत का शासन चक्र प्रसिद्द हो गया।  वह सारे पृथ्वी का चक्रवर्ती सम्राट हुआ।

उन्होंने इंद्र के सामान बहुत सारे यज्ञ किये।

महर्षि कण्व ने उनसे गोवितत नमक अश्वमेघ यज्ञ कराया। उसमे यों तो बहुत सारे ब्राह्मणो को दक्षिणा दी गयी, मगर महृषि कण्व को सहस्त्र पद्म मुहरे दी गयी थी।  

भरत से हीं इस देश का नाम भारत पड़ा और वो भरतवंश का प्रवर्तक माना गया।   

           


  


Friday, October 23, 2015

दुष्यंत और शकुंतला की कहानी... Mahabharata Episode 19

जनमेजय ने कहा...

भगवन मैंने अब आपसे देवता-दानव के अंश से अवतरित होने की कथा सुन ली है । अब आपकी पूर्व सूचना के अनुसार कुरुवंश का वर्णन सुनना चाहता हूँ … 

वैशम्पायन जी कहते हैं ...

महाराज कुरुवंश* का प्रवर्तक था परम प्रतापशाली राजा दुष्यंत। समुद्र से घिरे और मल्लेछों के देश भी उसके अधीन थे। सभी लोग राज्याश्रय में निर्भय रहकर निष्काम धर्म का पालन करते थे।

दुष्यंत स्वयं विष्णु के सामान बलवान, सूर्य के सामान तेजस्वी, समुन्द्र के सामान अक्षोब्य और पृथ्वी के सामान क्षमाशील था। लोग प्रेम से उसका सम्मान करते और वह धर्म बुद्धि से सबका शाषण करता।

एक दिन वो अपनी पूरी सेना को लेकर एक गहन वन से गुजर रहे थे। उस गहन वन के पार हो जाने पर उन्हें एक आश्रम दिखा। वो आश्रम एक ऐसे उपवन में बना था जिसकी छटा देखतें हीं बनती थी। 

अग्निहोत्र की ज्वालायें प्रज्वालित हो रही थी, वालखिल्य आदि ऋषियों, जलाशयों, पुष्प, पक्षियों के मधुर ध्वनि के कारण उस जगह की शोभा अद्भुत हो रही थी। ब्राह्मण देवताओं की स्तुति कर रहे थे, सामने मालिनी नदी बह रही थी, राजा दुष्यंत को लगा मानो वो ब्रह्मलोक में हीं आ गए हो। 

यह सब देखते देखते राजा दुष्यंत वहां कश्यप गोत्रधारी मह्रिषी कण्व के आश्रम में आ पंहुचे।  उन्होंने मंत्रियों को द्वार के बहार हीं रोक दिया और अकेले हीं अंदर आयें।  आश्रम को सुना देख उन्होंने आवाज लगायी…  

" यहाँ कोई है !!! "

तभी अंदर से एक लक्ष्मी के सामान सुन्दर कन्या बाहर आयी और उसने आसान, पाद्य और अर्घ्य के द्वारा राजा का आतिथ्य करके उनका कुशल समाचार पुछा।  स्वागत -सत्कार के बाद कन्या ने तनिक मुस्करा कर उनसे कहा … 

"मैं आपकी और क्या सेवा करूँ ?"

राजा दुष्यंत ने कहा ...

मैं महर्षि कण्व के दर्शन करने  के लिए आया हूँ , वो अभी कहाँ हैं???   

उस सर्वांगसुंदरी, रूपवती कन्या ने कहा ... 

" महर्षि कण्व जंगल से फल फूल लाने गए हैं.। आप घडी दो घडी उनकी प्रतीक्षा करे, वो आते हीं होंगे, तब आप उनसे मिल सकेंगे …  "

ऋषि कन्या के रूप को देख राजा दुष्यंत उसपे मोहित हो गए और उन्होंने उससे पुछा …

हे सुंदरी ! तुम कौन हो, तुम्हारे पिता कौन है, और किसलिए तुम यहाँ आयी हो, तुमने मेरा मन मोहित कर लिया है… मैं तुम्हे जानना चाहता हूँ।  

ऋषिकन्या ने कहा ...

मैं महर्षि कण्व की पुत्री हूँ…

इस पर दुष्यंत ने कहा 

मगर महर्षि कण्व तो ब्रह्मचारी हैं, सूर्य अपने पथ से विचलित हो सकता है मगर महर्षि कण्व नहीं, फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम उनकी पुत्री हो।  

कन्या ने कहा...   

राजन ! एक ऋषि के पूछने पर मह्रिषी कण्व ने मेरे जन्म की कहानी सुनाई थी।  उससे मैं जान सकी हूँ कि जब परम प्रतापी विश्वामित्र अपनी घोर तपस्या में लीन थे, तो देवराज इंद्र ने मेनका को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा था, उन्ही दोनों के संसर्ग से मेरा जन्म हुआ था, माता मुझे वन में छोड़ कर चली गयी थी, तब शकुंतो (पक्षियों) ने मेरी रक्षा की थी इसलिए मेरा नाम शकुंतला पड़ा ।। बाद में मह्रिषी कण्व मुझे अपने आश्रम में ले आएं।  शरीर के जनक, रक्षक और अन्नदाता तीनो हीं पिता कहे जाते हैं, इस तरह महर्षि कण्व मेरे पिता हुए … 

इस पर राजा दुष्यंत ने कहा.…  

विश्वामित्र तो क्षत्रिय थे, अतः तुम क्षत्रिय हुई। इसलिए तुम मेरी पत्नी बन जाओ ! क्षत्रियों के लिए गन्धर्व विवाह सर्वश्रेष्ठ माना गया है , अतः तुम मुझे खुद हीं वरण कर लो।  

इस पर शकुंतला ने कहा.…  

मेरे पिता अभी यहाँ नहीं हैं, उन्हें यहाँ आने दीजिये, वो खुद हीं मुझे आपकी सेवा में समर्पित कर देंगे !!   

इस पर राजा दुष्यंत ने कहा...  

मैं चाहता हूँ तुम खुद हीं मेरा वरण कर लो, मनुष्य स्वयं हीं अपने सबसे बड़ा हितैषी है, तुम धर्म के अनुसार स्वयं हीं मुझे अपना दान कर दो…

यह सुनकर शकुंतला ने कहा.… 

अगर आप इसे धर्मानुकूल मानते हैं और मुझे स्वयं का दान करने का अधिकार हैं तो मेरी एक शर्त सुन लीजिये, कि मेरे बाद मेरा हीं पुत्र सम्राट बनेगा और मेरे जीवनकाल में हीं वो युवराज बन जाये !!! 

राजा दुष्यंत ने बिना कुछ सोचे समझे वैसी हीं प्रतिज्ञा कर ली और गन्धर्व विधि से उसका पाणिग्रहण कर लिया।  

दुष्यंत ने उसके बाद उससे समागम कर बार बार उसे यह विश्वास दिलाया कि.… 

" मैं तुम्हे लाने के लिए चतुरांगणी सेना भेजूंगा और शीघ्र से शीघ्र तुम्हे अपने महल में बुला लूँगा …

ऐसा बोल कर वो बिना महर्षि कण्व से मिले बिना सेना सहित वापस नगर लौट गए।  

रास्ते भर वो ये सोंचते रहें कि पता नहीं महर्षि कण्व यह सब जान कर न जाने क्या करेंगे … 

थोड़ी हीं देर में महर्षि कण्व आश्रम में आ पहुंचे।  लाज के मारे शकुंतला उनसे छिप गयी।  

महर्षि कण्व ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह जान लिया कि क्या हुआ था, उन्होंने शकुंतला को बुला कर कहा 

तुमने मुझसे छिप कर, एकांत में जो कार्य किया है वह धर्म के विरुद्ध नहीं है।  क्षत्रियों के लिए गन्धर्व विवाह शास्त्रोचित है, दुष्यंत एक उदार, परम प्रतापी और धर्मात्मा पुरुष है, उसके संयोग से एक बड़ा बलवान पुत्र पैदा होगा और वो सारी पृथ्वी का राजा होगा…