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Friday, January 16, 2015

जो इसमें नहीं है वो और कहीं नहीं है.… Mahabharata Episode 15

शौनक जी ने तब कहा........

सुतनन्दन! आपने कहा था कि इस सर्प-सत्र के अंत में जनमेजय कि प्रार्थना पे, भगवान श्री कृष्णद्वैपावन ने अपने शिष्य वैशम्पायन जी को यह आज्ञा दी थी कि, तुम इस महाभारत की कथा इन्हे सुनाओ।  अब मैं भगवन व्यास जी के मनः सागर से उत्पन्न उस महाभारत के कथा को सुनना चाहता हूँ. आप मझे वो कथा सुनाइए।   

उग्रश्रवा जी ने कहा……

अब मैं वही कथा तुम्हे आरम्भ से सुनाता हूँ।  मुझे भी यह कहानी सुनाने में बड़ा हर्ष होता है।।


जब भगवान श्री कृष्णद्वैपावन को यह बात मालुम पडी कि, जनमेजय सर्प यज्ञ के लिए दीक्षित हो चुके हैं, तो वो अपने शिष्यों के साथ वहां आये।

भगवान व्यास का जन्म शक्ति पुत्र पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से यमुना की रेती में हुआ था। * 

वो पांडवो के पितामह थे।  वो जन्मते हीं स्वेच्छा से बड़े हो गए और साङ्गोपाङ्ग वेदो और इतिहासों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।

उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे कोई तपस्या, वेदाध्यन, व्रत, उपवास, स्वाभाविक शक्ति और विचार से प्राप्त नहीं कर सकता था।

उन्होंने एक हीं वेद  को चार भागो में विभक्त कर दिया। *

उन्ही की कृपा प्रसाद से धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर का जन्म हुआ था।

अपने शिष्यों के साथ उन्होंने यज्ञमंडप में प्रवेश किया। उन्हें देखते हीं राजा जमेजय सहित सारे सभासद, ऋत्विज झटपट अपनी-अपनी जगहों से खड़े हो गए।    

राजा जनमेजय ने आगे बढ़कर उनका यथोचित स्वागत-सत्कार किया और कहा

भगवन ! आपने तो पांडवो और कौरवो को अपनी आँखों से देखा है।  वो तो बड़े धर्मात्मा थे, फिर उनलोगों में अनबन क्यों हुआ !! इतना घोर युद्ध होने की नौबत कैसे आ गयी ?? इससे तो सारे प्राणियों का बड़ा अनर्थ हुआ होगा, अवश्य हीं दैववश उनका झुकाव युद्ध की तरफ हो गया होगा ?? आप कृपया करके मुझे उनकी पूरी कथा सुनाइए।  

जनमेजय की यह बात सुनकर वेद व्यास ने वहां बैठे अपने शिष्य वैशम्पायन जी को कहा

तुम मुझसे पूरी महाभारत की कथा सुन चुके हो, अब वही बात तुम जनमेजय को दुहरा दो…… 

इस पर वैशम्पायन जी ने संकलप के द्वारा गुरु को प्रणाम किया और कहा

यह कथा एक लाख श्लोको में कही गयी है।  इसके वक्ता और श्रोता दोनों ब्रह्मलोक में जाकर देवताओं के सामान हो जाते हैं। यह उत्तम और पवित्र पुराण वेद तुल्य है।  सुनने और सुनाने योग्य कथाओं में उत्तम है।

इससे मनुष्य को अर्थ और काम की प्राप्ति के धर्मानुकूल उपाय बताये गए, और मोक्ष तत्त्व को पहचानने की बुद्धि भी आ जाती है।

इस इतिहास का नाम जय है, और चूँकि इसमें भरतवंशी के जन्मो का महान कीर्तन है, इसलिए इसे महाभारत भी कहते हैं।

भगवान श्री कृष्णद्वैपावन जी हर दिन सुबह उठकर स्नान संध्या आदि से निवृत होकर इसका निर्माण करते थे। इस कार्य में उन्हें तीन वर्ष का समय लगा, इस लिए इसका श्रवण भी उसी प्रकार नियम से करना चाहिए।

जैसे समुद्र और सुमेरु पर्वत रत्नो की खान है वैसे हीं ये ग्रन्थ भी कथाओ का मूल उद्गम है।  धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष  सम्बन्ध में जो बात इस है, वही सवत्र है।

जो इसमें नहीं है वो और कहीं  नहीं है.…… 





 


     

"ठहर जा !! ठहर जा !! ठहर जा !!" Episode 14

उग्रश्रवा जी कहते हैं…

इस प्रकार यज्ञ में बहुत से सर्प नष्ट हो गए और थोड़े हीं बचे। इससे वासुकि नाग को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने घबराये हुए स्वरों में अपनी बहन, ऋषिपत्नी जरत्कारु को कहा.…

बहिन !! मेरा अंग-अंग जल रहा है। आँखों के आगे इतना अँधेरा छाया है कि मेरा दिशा ज्ञान खोता चला जा रहा है। खड़ा होना भी मुश्किल है!! लगता है मैं भी बलात पूर्वक उस यज्ञ की अग्नि में जा गिर पडूंगा।  

मैंने इसी समय के लिए तुम्हारा विवाह जरत्कारु ऋषि से कराया था। तुम अपने पुत्र आस्तिक को ब्रह्मा जी के कथनानुसार इस यज्ञ को बंद कराने के लिए कहो।  

इस पर ऋषिपत्नी जरत्कारु ने अपने पुत्र को सारा इतिहास बतला कर, उन्हें सर्पो की रक्षा के लिए प्रेरित किया। इस पर आस्तिक बोले

"नागराज!! आप मन में शांति रखिये। मैं आप से सत्य-सत्य कहता हूँ, मैं उस श्राप से आपलोगों को मुक्त करा लूंगा. मैंने कभी परिहास में भी असत्य वचन नहीं बोला है।

मैं अपने मीठे वचनो से राजा जनमेजय को प्रसन्न कर लूँगा और वह यज्ञ बंद कर देगा। मामा जी !! आप मेरा विश्वास करें  …"   

यह बोलकर, आस्तिक यज्ञशाला की तरफ चल दिए।

वहां पंहुच कर उन्होंने देखा की सूर्य और अग्नि के सामान तेजस्वी सभासदों से पूरी यज्ञशाला भरी पड़ी है। द्धारपालो ने उन्हें यज्ञ मंडप में प्रवेश करने से रोक दिया।

इस पर आस्तिक द्धार से खड़े-खड़े हीं यज्ञ की स्तुति करने लगे।

उनके द्वारा यज्ञ की स्तुति सुनने के पश्चात, जनमेजय ने उन्हें अंदर आने दे दिया।

अंदर आ कर वो और ऋत्विजों के साथ यज्ञ की स्तुति करने लगे। अभी वो बालक हीं थे मगर उनकी स्तुति सुनकर राजा, सभासद, ऋत्विज और अग्नि सभी प्रसन्न हो गए।  जनमेजय ने खुश हो कर कहा.…

"यद्यपि ये बालक हैं, पर फिर भी बात अनुभवी वृद्धों के समान कर रहा है। मैं इसे वर देना चाहता हूँ। आपकी क्या मंत्रणा है!!! "

इस पर वहां मौजूद सभी सभासदों, ऋत्विजों ने एक स्वर में कहा

बालक ब्राह्मण भी राजा के लिए सम्मानीय है ,फिर, अगर वो बालक विद्वान हो तो कहना हीं क्या!!! अतः आप इस बालक को मनमांगी वास्तु दे सकते हैं।।

इस पर राजा जनमेजय ने कहा

आपलोग और प्रयत्न्न कीजिये जिससे तक्षक नाग यहाँ आ कर भष्म हो। वही तो मेरा प्रधान शत्रु है। ।

ऋत्विजों ने कहा

अग्निदेव का कहना है कि तक्षक इंद्र की शरण में चला गया है और उन्होंने उसे अभयदान दिया है… 

इस पर जनमेजय ने कुछ खिन्न होकर कहा …

आपलोग कुछ ऐसा कीजिये कि वो इंद्र के सहित इस अग्नि में आ गिरे… 

इसके बाद होता ने आहूति डाली, तो उसी समय तक्षक और इंद्र दोनों आकाश में दिखाई दिए। इंद्र तो उस यज्ञ को देखकर बहुत हीं घबरा गए और तक्षक को छोड़ कर चलते बने।

तक्षक क्षण-क्षण अग्नी ज्वाला के समीप आने लगा, तब ब्राह्मणो ने कहा.…

अब आपका काम ठीक -ठीक हो रहा है।  आप इस ब्राह्मण को वर दे दीजिये....  

तब राजा जनमेजय ने कहा

ब्राह्मणकुमार ! मैं आपके जैसे सत्पात्र को वर देना चाहता हूँ।  अतः आपकी जो इच्छा हो ,वो आप मांग ले। आपको मैं कठिन से कठिन वर भी दूंगा। आप मांगिये।  

आस्तिक ने देखा कि अब तक्षक अग्नि में गिरने हीं वाला है तो उसी वक़्त उन्होंने वर माँगा

राजन !! आप प्रसन्न हों तो इसी समय यह सर्प यज्ञ बंद कर दे, जिससे इसमें गिरते हुए सर्प  बच जाए। । 

इस पर जनमेजय ने कुछ अप्रसन्न होकर कहा.…

समर्थ ब्राह्मण!! तुम सोना- चांदी, धन, गाये, राज्य कुछ भी मांग लो मगर यह नहीं। 

इस पर आस्तिक ने कहा

मुझे और कुछ नहीं चाहिए।  मातृकुल के कल्याण के लिए मैं आपका यज्ञ हीं बंद कराना चाहता हूँ।  

जनमेजय के बार-बार मनाने के बावजूद जब आस्तिक ने दूसरा वर नहीं माँगा, तो सभी सभासदों ने एक स्वर से कहा

ये ब्राह्मणकुमार जो भी मांगता है, इसे मिलना हीं चाहिए।। 

तब शौनक जी ने पुछा

सुतनन्दन!! उस यज्ञ में तो और भी ब्राह्मण और विद्वान ऋत्विज मौजूद थे, तो आस्तिक के बात करते -करते तक्षक अग्नि में नहीं गिरा, इसका क्या कारण हुआ ?? क्या ब्राह्मणो को वैसे मंत्र नहीं सूझे ??? 

इस पर उग्रश्रवा जी कहतें हैं

जब तक्षक इंद्र के हाथों से छूटा तो वो मुर्क्षित हो गया। तब आस्तिक ने तीन बार कहा

"ठहर जा !! ठहर जा !! ठहर जा !!"

इससे वो यज्ञ-कुंड और आकाश के बीच स्थिर हो गया और अग्नि में नहीं गिरा …

सभासदों के बार-बार कहने पर आख़िरकार, राजा जनमेजय ने कहा.…

अच्छा!! आस्तिक की इच्छा पूर्ण हो।  यज्ञ बंद हो और इसी के साथ हमारे सूत की बात भी सच साबित हुई।

इसके बाद जनमेजय ने वहां आये सारे ऋत्विज, सदस्यों और ब्राह्मणो को भरपूर दान दिया. और उस सूत का भी बहुत सत्कार हुआ।।

आस्तिक का भी बहुत आदर-सत्कार हुआ। जनमेजय ने उन्हें विदा करते समय कहा.…

आप मेरे अश्वमेघ यज्ञ में सभासद बने........ 

आस्तिक ने कहा ……  

तथास्तु !!  

इसके बाद आस्तिक ने अपने मामा के घर जाकर उन्हें सारी बात बतायी।

उस समय नागराज वासुकि की सभा में सारे बचे हुए सर्प उपस्थित थे। आस्तिक की बात सुनकर सारे सर्प बड़े प्रसन्न हुए।  वासुकि जी ने बड़े प्यार से उन्हें गले लगा कर कहां……

बेटा !! तुमने हमे मृत्यु के मुँह से निकाल दिया।  बताओ हम ऐसा क्या करें जिससे तुम प्रसन्न हो..... वर मांगो !!! 

इस पर आस्तिक ने कहा

"आप सभी सर्प मुझे वर दे कि जो भी मनुष्य धर्मपूर्वक इस कथा का प्रातःकाल और संध्याकाल में पाठ करे, उसे सर्पों से कोई भय नहीं हो…"

इस पर सर्पों ने एक सुर से कहा

ऐसा हीं होगा !!!!!!!!!!!!


















  








      

सर्प-यज्ञ का प्रारम्भ Episode 13

उग्रश्रवा जी कहते हैं.…

अपने मंत्रियों से अपने पिता की मृत्यु का इतिहास जानने के बाद राजा जनमेजय के अंदर क्रोध और दुःख दोनों के भाव उभरे।

उनके आँखों से आंसू गिरने लगे।  दुःख, शोक, और क्रोध से अभिभुर, आँखों से आंसू बहाते हुए, उन्होंने हाथों में जल लेकर, शाष्त्रोयुक्त तरीके से यह प्रतिज्ञा की.….

"मैं तक्षक से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का संकलप करता हूँ!! उस दुष्ट तक्षक के कारण हीं मेरे पिता की मृत्यु हुई है.श्रृंगी ऋषि का श्राप तो सिर्फ एक बहाना मात्र था. इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि उसने कश्यप ऋषि को ,जो मेरे पिता का विष उतारने के लिए आ रहे थे, उनको धन दे कर लौटा दिया. 

अगर उसने ऐसा नहीं किया होता,तो अवश्य हीं मेरे पिता को कश्यप ऋषि जीवित कर देते, और इससे श्रृंगी ऋषि का श्राप भी पूरा हो जाता और मेरे पिता भी जीवित रहते। इससे भला उस तक्षक की क्या हानि हो जाती ....." 

मंत्रियों ने राजा जनमेजय की प्रतिज्ञा का अनुमोदन किया।।

जनमेजय ने तब अपने मंत्रीगणों और पुरोहितो से ये पुछा कि बताइये……

तक्षक ने मेरे पिता के साथ हिंसा की है, मैं इसके लिए उसे उस सर्प को धधकती आग में होम करना  चाहता हूँ ।।आप कोई ऐसी ऐसी विधि बताइये …....  

इस पर ऋत्विजों ने कहा
राजन !! पहले से हीं देवताओं ने आपके लिए एक महायज्ञ का निर्माण कर रखा है. यह बात पुराणो में भी वर्णित है। आपके अलावा ये महायज्ञ और कोई करेगा भी नहीं।  हमे इस यज्ञ की विधि मालूम है. … इस यज्ञ के यज्ञ-कुंड में सारे सर्पो के साथ तक्षक भी जल कर भष्म हो जाएगा।।।। 

राजा जनमेजय ने उन्हें यज्ञ की सामग्री जुटाने का आदेश दे दिया….

यज्ञ-मंडप तथा यज्ञ-शाला बनकर तैयार हुए, और राजा जनमेजय यज्ञ के लिए दीक्षित हुए. तभी एक अजीब बात हुई।  किसी कला कौशल के पारंगत विद्वान, अनुभवी, और बुद्धिमान सूत ने कहा ……

"जिस स्थान और जिस समय में यज्ञ-मंडप मापने की क्रिया का प्रारम्भ हुआ है, उससे ऐसा लगता है कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकेगा..........  

ऐसा सुनकर राजा जनमेजय ने द्धारपालो से कहा दिया कि बिना मुझे सुचना दिए, कोई भी पुरुष यज्ञ-मंडप में प्रवेश न कर सके. .

थोड़ी देर सर्प-यज्ञ प्रारम्भ हुआ।  धुंए से लोगों की आँखें लाल हो गयी। काले-काले कपडे पहने, ऋषि-गण जोर- जोर से मंत्रोचार कर रहे थे.

उस समय सारे सर्पों का ह्रदय डर से कांपने लगा। एक दुसरे से लिपटते, चिल्लाते-चीखते बेचारे सर्प आ-आ कर यज्ञ-कुण्ड में गिरने लगे. उनके जलने की दुर्गन्ध चारो तरफ फ़ैल गयी और उनके चिल्लाहटों से सारा आकाश गूँज उठा।।।

यह समाचार तक्षक ने भी सुना। वो भयभीत होकर देवराज इंद्र के पास गया और कहा…

देवराज!! मैं अपराधी हूँ।  भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा करिये।।।।।

इंद्र ने प्रसन्न हो कर कहा

मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए पहले से हीं से ब्रह्मा जी से अभयवचन ले लिया है। तुम्हे सर्प यज्ञ से कोई भय नहीं। तुम दुखी मत हो। 

इंद्र की बात सुनकर तक्षक आनंद से इंद्रभवन में हीं रहने लगा.……     










Monday, January 12, 2015

तक्षक 2 Episode 12

शौनक जी ने फिर पुछा …

"सुतनन्दन! राजा जनमेजय ने उत्तंक की बात सुनकर अपने पिता की मृत्यु के संबंध में जो कुछ पुछ-ताक्ष की, आप हमे वो बताइये...।।  

उग्रश्रवा जी ने कहा …

राजा जनमेजय ने उत्तंक की बात सुनने  के बाद अपने मंत्रियों से पुछा

" मेरे पिता के जीवन में ऐसी  कौन सी घटना घटी थी, जिससे उनकी मृत्यु हुई!!!"

इस पर मंत्रियों ने कहा

"आपके पिता बड़े पराक्रमी थे . भगवान श्री कृष्ण को उनसे बड़ा प्रेम था. वो पिता के सामान धर्मनिष्ट होकर पुत्रों की तरह अपने प्रजा का पालन करते थे. 

चूंकि कुरुवंश के परिक्षीण होने पर उनका जन्म हुआ था, इसलिए वो परीक्षित कहलाये. उन्होंने 60 वर्ष तक प्रजा का पालन किया, फिर एक दिन वो सारी प्रजा को दुखी कर इस पृथ्वी से चले गये....

इस पर  राजा जनमेजय ने  कहा

" मगर आपलोगों ने प्रशन का उत्तर तो दिया हीं नहीं!!! " मैं तो अपने पिता के मृत्यु का कारण जानता चाहता हूँ ??"

मंत्रियों ने कहा
"महाराज!! आपके पिता भी राजा पाण्डु * की तरह शिकार के बड़े प्रेमी थे. 

उन्होंने एक दिन एक हिरण को बाण मारा और उसका पीछा करते करते बहुत दूर तक निकल गए।  बहुत दूर तक जा कर भी वो उस हिरण को ढूंढ नहीं पाये। वो साठ वर्ष के हो चुके थे, इसलिए थक गए।  

भूखे और प्यासे थे।  उसी समय उन्हें एक मुनि दिखे।  उन्होंने मुनि से पानी माँगा।  परन्तु मुनि  कुछ नहीं बोले। 

 उस समय राजा भूख और प्यास से क्षुबित थे, थके थे, और मुनि को कुछ बोलता नहीं देख, उन्हें गुस्सा आ गया. वो यह नहीं जान पाये की मुनि मौनव्रत पे हैं.

उन्होंने उनके अपमान के उद्देस्य से, धनुष से उठाकर, एक मरे हुए सर्प को उनके गले में लटका दिया. 

मुनि  इस पर भी कुछ नहीं बोले. राजा परीक्षित भी ज्यों-त्यों उलटे पाँव वापस महल में चले आये.

उन मौनी ऋषि शमीक का पुत्र था श्रृंगी।  बड़ा हीं तेजस्वी और महाशक्तिशाली!!  

जब उसने अपने मित्रों से सुना कि राजा परीक्षित ने मौन और निष्चल अवस्था में बैठे ,उनके  पिता का  तिरस्कार  किया है, तो वो क्रोध  से  आग -बबूला  हो गया।  उसने  हाथ में जल लेकर  आपके पिता को श्राप  दिया …

" जिसने मेरे निरपराध पिता के कंधे में मरा हुआ सांप रखा है, उसे तक्षक सांप क्रोधित होकर सात दिनों के अंदर अपने विष से जला देगा। लोग मेरी  तपस्या का बल देखें!!!!


श्रृंगी ने लौट कर यह  बात अपने पिता शमीक ऋषि को बतायी।  उन्हें  यह बात सुनकर अच्छा नहीं लगा।  उन्होंने आपके पास अपने शीलवान और गुणी शिष्य गौरमुख को भेजा।

गौरमुख  ने आपके पिता को यह श्राप वाली बात बतायी और उन्हें सावधान कर दिया.

सातवे दिन जब तक्षक आ रहा था तो उसने कश्यप नामक एक ब्राह्मण को देखा। तक्षक ने पुछा… 

"ब्राह्मण देवता आप इतनी शीघ्रता से कहाँ जा रहे हैं और क्या करना चाहते हैं ??

इस पर कश्यप ने कहा 

"जहाँ आज राजा परीक्षित को तक्षक सांप जलाएगा, मैं वहीँ जा रहा हूँ।  मैं उन्हें तुरंत जीवित कर दूंगा, मेरे पहुँचने पर तो वो सांप जला भी नहीं सकेगा …"


तक्षक  ने कहा 

मैं हीं तक्षक हूँ. आप उसे जीवित क्यों करना चाहते हैं ?? मेरे डंसने के बाद उसे जीवित कर भी नहीं पाएंगे। आप मेरी शक्ति देखिये !!

इतना कहकर तक्षक ने अपना विष सामने एक वृक्ष पे छोड़ा। वृक्ष जलकर राख हो गया। पल भर में कश्यप ने उस जले वृक्ष को दुबारा हरा भरा बना दिया!!

 यह देख कर तक्षक कश्यप की खुशामद करने लगा…" आप क्यों जाना चाहते हैं?? आपको क्या चाहिए??

ब्राह्मण   ने कहा 

मैं तो धन के लिए जा रहा हूँ। ।

तक्षक ने कहा

आप मुँहमाँगा धन मुझसे ले लीजिये  और यहीं से लौट जाइए !!

ब्राह्मण उनसे मुँहमाँगा धन लेकर वहीँ से लौट गया। 

इसके बाद तक्षक छल से आया और उसने अपने महल में बैठे, सावधान , आपके धार्मिक पिता को अपने विष की आग से भस्म कर दिया. 

तक्षक ने हीं आपके पिता को डंसा है, और उसने उत्तंक ऋषि को भी बहुत कष्ट दिया है. आपको जो उचित लगे वो कीजिये। आपके आदेश से हीं, हमने यह दुखद घटना आपको बतायी है।

इस पर राजा जनमेजय ने कहा.…

तक्षक के डंसने से वृक्ष का राख हो जाना और कश्यप को उसका दुबारा हरा भरा बना देना, यह बात आपको कहाँ से मालूम पडी है??

क्योंकि अगर ऐसा है तो कश्यप मेरे पिता को भी जीवित कर सकते थे!!  फिर तो तक्षक ने उनको लौटा कर बहुत अनर्थ किया है !! अच्छा !! मैं इसका दंड दूंगा. पर पहले आप इस कथा का  मूल तो बताइये??

तक्षक ने जिस पेड़ को डंसा था उस पेड़ पे पहले से हीं एक इंसान सुखी लकड़ियों के ढेर के साथ बैठा हुआ था।  यह बात न तो कश्यप को पता थी और न हीं तक्षक को। 

वो भी पेड़ के साथ राख हो गया और जब  कश्यप के मंत्र प्रभाव से जब वो पेड़ दुबारा हरा -भरा हुआ तो वो इंसान भी जीवित हो गया.

तक्षक और कश्यप की बातचीत उसने सुनी थी और उसी ने आकर हमको ये सूचना दी.

अब आप हमलोगो का देखा-सुना जानकार जो उचित लगे , कीजिए.… 





 






 
 



Thursday, January 8, 2015

जरत्कारू ऋषि की कहानी Mahabharata Episode 11

फिर शौनक जी ने पुछा

"आपने जिन जरत्कारू ऋषि का नाम लिया है, उनका नाम जरत्कारू क्यों पड़ा?? उनके नाम का क्या अर्थ है ? और उनसे आस्तिक ऋषि का जन्म कैसे हुआ था ??"

उग्रश्रवा जी ने कहा

जरा का अर्थ होता है क्षय और कारू का मतलब है दारुण, मतलब हट्टा कट्टा। उनका शरीर बहुत हट्टा कट्टा था, जिसे उन्होंने तपस्या करके क्षीण कर लिया था, इसलिए उनका नाम पड़ा जरत्कारू।


वासुकि की बहन भी ऐसी हीं थी. उसने भी तपस्या कर अपना शरीर क्षीण कर लिया था, इसलिए वो भी जरत्कारू कहलाई।


जरत्कारू ऋषि विवाह नहीं करना चाहतें थे।

 उन्होंने बहुत दिनों तक ब्रहमचर्य धारण कर तपस्या की।
वो जप, तप और स्वाध्याय में लगे रहतें और निर्भय होकर स्वच्छंद रूप से पृथ्वी का भ्रमण करते रहतें। 


उनका नियम था, जहाँ भी शाम हो जाती, वो वहीँ रुक जाते।एक दिन यात्रा करते समय उन्होंने देखा कि कुछ पितर नीचे की ओर मुँह किये एक गड्ढे से लटक रहे हैं। 


वो खस का एक तिनका पकडे हुए थे और वही केवल बच भी रहा था। उस तिनके की जड़ को भी एक चूहा कुतर रहा था।


पितृगण निराहार थे, दुबले और दुखी थे।।

जरत्कारू ने उनके पास जाकर पुछा  …
 
आपलोग जिस तिनके का सहारा लेकर लटक रहें है, उसके जड़ को एक चूहा कुतर रहा है, जड़ जब कट जाएगा, तो आप इस गड्ढे में गिर पड़ेंगे। आपलोग कौन हैं!!! और कैसे इस मुसीबत में आ पड़े हैं। मझे आपलोगों को इस तरह देख कर बहुत दुःख हो रहा है. मैं आपकी किस तरह से मदद करूँ !! 

मैं अपनी तपस्या का दसवा, चौथाई अथवा आधा फल देकर भी अगर आपलोगों का इस कष्ट से निवारण कर सकूं, तो मुझे बताये। यहाँ तक की मैं अपने पूरे तपस्या का फल देकर भी आपलोगों को बचाना चाहता हूँ !!!! "


इस पर उन पितरों ने कहा ....

"तपस्या का फल तो हमारे पास भी है। तपस्या के फल से हमारी विप्पति नहीं टल सकती । हम कुल-धर्म परंपरा के नाश  होने के कारण इस गति को प्राप्त हो रहे हैं। हमारे कुल में अब सिर्फ एक हीं व्यक्ति रह गया है, जरत्कारू!! और हमारे अभाग्य से वो भी तपस्वी हो गया है!! वो विवाह नहीं करना चाहता है।

तपस्या के लोभ में उसने हमे इस अधोगति पे पंहुचा दिया है। उसका कोई भाई-बन्धु  पत्नी-पुत्र नहीं  है। इसी कारण हम अनाथों की भाँती इस गड्ढे में लटक रहें हैं ।
और आप जो खस की जड़ देख रहें है, वही हमारे वंश का सहारा है, और वो आखिरी तिनका, हमारे वंश का आखिरी पुरुष जरत्कारू है। ये चूहा महाकाल है, जो धीरे-धीरे इसे कुतर रहा  है। 

अगर तुम हमारी मदद करना चाहते हो, तो, अगर तुम्हे कहीं जरत्कारू दिखे तो उससे कहना, यह महाबली काल एक दिन उसे भी नष्ट कर देगा, और तब हम सब और भी मुसीबत में आ पड़ेंगे।।"


यह सुनकर जरत्कारू ऋषि को बड़ा दुःख हुआ, उनका गला भर आया, और वो गदगद गले से बोले...

"आपलोग मेरे हीं पिता और पितामह हैं, मैं आपका अपराधी पुत्र जरत्कारू हूँ.... "

पितरों ने कहा

"यह बहुत सौभाग्य की बात है कि तुम हमे मिल गए हो। यह बताओ तुमने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया है !!"

जरत्कारू ऋषि ने कहा

"मैंने अपने मन में यह दृढ निश्चय कर लिया था कि मैं कभी विवाह नहीं करूंगा। परन्तु अब, आपलोग के कष्ट को देखकर, मैंने ब्रह्मचर्य का निश्चय पलट दिया है। 

अगर मुझे अपने हीं नाम की कोई स्त्री भिक्षा के रूप में मिल जाए,तो मैं उस कन्या से विवाह  कर लूँगा, पर उसके भरण-पोषण का भार नहीं उठाऊंगा ।।

ऐसी सुविधा मिलने पर हीं मैं विवाह करूंगा अथवा नहीं। आप चिंता ना करें। आप के कल्याण के लिए मेरा विवाह अवश्य होगा।
 
ये कहकर वो पुनः पृथ्वी पे विचरने लगे। 

पर एक तो बूढ़ा समझकर उन्हें कोई अपनी कन्या नहीं देता अथवा उन्हें अपने अनुरूप कन्या नहीं मिलती।


इससे निराश होकर एक दिन वो वन में गए और पितरों के हित के लिए तीन बार धीरे धीरे ये बोला ....

"मैं कन्या की आचना करता हूँ।

 जो भी चर-अचर, अथवा गुप्त और प्रकट प्राणी हैं सुने, मैं अपने पितरों के कल्याण के लिए, उनकी प्रेरणा से एक कन्या की भीख मांगता हूँ। जिस कन्या का नाम मेरा हीं हो, जो मुझे दान की तरह दी जाए, और जिसके भरण पोषण का दायित्व्य मेरे उपर ना हो, वैसी कन्या मुझे प्रदान करो।।।। 


वासुकि नाग के नियुक्त सर्पों ने जब ऐसा सुना, तो उन्होंने जा कर नागराज वासुकि को ये बताया, तो नागराज वासुकि चटपट अपनी बहन जरत्कारू को लेकर वहां पहुंच गए।।


जरत्कारू ऋषि ने उनके सामने अपनी बात  दुहराई.....

इसका नाम भी जरत्कारू हीं होना चाहिए और मुझे यह भिक्षा में मिलनी चाहिए और मैं इसका भरण पोषण नहीं करूंगा !!

वासुकि ने कहा

"इसका नाम भी जरत्कारू हीं है, ये मेरी बहन है। इसकी भरण पोषण और रक्षा मैं करूंगा। आपके लिए हीं मैंने इसे अब तक रख छोड़ा है....। "


इस पर जरत्कारू ने कहा

इसका भरण पोषण मैं नहीं करूंगा, ये एक शर्त तो हो हीं गयी। दूसरा और एक सुन लो!! अगर इसने कभी, मेरा कोई अप्रिय काम किया तो मैं इसे छोड़ कर चला जाऊँगा।
 
जब नागराज वासुकि ने उनकी सभी शर्तों को मान लिया।

वो उन्हें अपने महल में ले आयें। वहां उनका विधिवत विवाह हुआ। वो सुख से सर्पराज वासुकि के  महल में रहने लगे। 

उन्होंने अपनी पत्नी को भी यह बता दिया था...

"मेरी रूचि के खिलाफ ना तो कुछ करना, ना हीं कुछ बोलना, वरना मैं तुम्हे छोड़कर चला जाऊँगा !! "


उसके बाद उनकी पत्नी जरत्कारू बहुत ध्यान से उनकी सेवा करने लगी और समय रहते उसे गर्भ ठहर हो गया।


एक दिन शाम में कुछ खिन्न हो कर जरत्कारू ऋषि अपनी पत्नी की गोद में सर रखकर सो रहें थे।  


संध्याकाळ हो चूका था और क्षण भर में सूर्यास्त हुए जाता था। 

ऋषिपत्नी को धर्मसंकट आ गया.....

अगर उठाया तो उनके आराम में विघ्न होगा और सोने दिया तो धर्मलोप!!!

ऋषिपत्नी ने जरत्कारू के आराम के ऊपर उनके धर्मपालन को महत्व दिया और धीरे से बोलीं...

हे भगवन!! उठे और देखें की सूर्यास्त होने हीं वाला है।  अग्निहोत्र का समय है, कृपया संध्या-वंदना के लिए उठे !!

नींद में विघ्न पड़ने पर जरत्कारू ऋषि बड़े गुस्से में उठे। क्रोध से उनके होठ कांपने लगें और उन्होंने बड़े गुस्से में कहा ...

सर्पिनी!! तूने मेरा अपमान किया है! मेरा यह दृढ  निश्चय है कि मेरे सोते हुए कभी भी सूर्यास्त नहीं हो सकता। अब मैं अपने अपमान की जगह में नहीं रह सकता।

इस ह्रदय में कंपकपी पैदा कर देने वाली बात को सुन ऋषिपत्नी बोली.....

"मगर प्रभु मैंने आपके अपमान के उद्देश्य से आपको नहीं उठाया। आपके धर्म का लोप ना हो, यही मेरी दृष्टी थी..."
इस पर जरत्कारू ऋषि बोले

अब मेरा बोला टल नहीं सकता। वैसे भी ये हमारी शर्त में था। अब मैं जहाँ से आया था, वहीँ जा रहा हूँ। तुम अपने भाई से कहना मैं जितने दिन यहाँ रहा, बड़े सुख से रहा....."

यह सुनकर ऋषिपत्नी डरते-डरते दुबारा बोली...

धर्मज्ञ! मुझ निपराध को ऐसे ना छोडिये! आप तो जानते हीं है की मेरे आपके विवाह का एक प्रयोजन था कि हमारे संयोग से एक पुत्र पैदा हो, जो हम सर्पों को राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ में बचाएगा। अभी तो मेरे गर्भ से संतान भी नही हुई है आप मुझे क्यों छोड़ कर जाना चाहतें हैं !! कृपया तब तक आप ठहर जाइये..."

इस पर जरत्कारू ऋषि ने कहा


"तुम्हारे गर्भ में एक अग्नि के सामान तेजस्वी बालक है, जो बहुत हीं बड़ा विद्वान तपस्वी होगा ...।।"

इसके बाद जरत्कारू ऋषि वहां से चले गए। 

उनके जाते हीं ऋषिपत्नी ने उनके जाने की बात वासुकि जी को बताई ।

 वासुकी जी को यह सुनकर बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने ह्रदय कड़ा कर पुछा...

"उनके क्रोध के सामने कौन ठहर सकता है!! कहीं मैं उन्हें बुलाने जाऊं और वो मुझे गुस्से में श्राप न दे दे !!

बहिन! भाई को ऐसी बातें बहन से करना शोभा नहीं देता। परन्तु तुम तो जानती हीं हो को तुम्हारे उनके विवाह का एक प्रयोजन था। 

क्या तुम्हारा गर्भ ठहरा है ????

इस पर ऋषि-पत्नी ने उनकी बात दुहरा दी और कहा

"कभी विनोद में भी उन्होंने असत्य नहीं कहा!! ... "

यह सुनकर वासुकि जी बड़े प्रसन्न हुए और बड़े प्रेम से अपनी बहन का स्वागत-संस्कार करने लगे। 

समय आने पे उसके गर्भ से एक दिव्य-कुमार का जन्म हुआ।  

उसके जन्मने से मातृवंश और पितृवंश दोनों का भय जाता रहा। 

बाल्यावस्था में बड़े प्रयत्नो से उसकी रक्षा की गयी और थोड़े हीं दिनों में बालक इंद्र के समान बढ़कर नागो को हर्षित करने लगा।

 क्रमशः बड़े होकर उसने च्व्यन ऋषि से वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया। 


चूँकि जब वह गर्भ में था, तो उसके पिता ने उसके लिए "अस्ति"( है ) शब्द का उच्चारण किया था, इसलिए उनका नाम आस्तिक पड़ा।।।।

Tuesday, January 6, 2015

माता का श्राप Episode 10

शौनक आदि ऋषियों ने तब उग्रश्रवा ऋषि से यह पुछा…

सुतनन्दन! जब सर्पों को पता था कि उनकी माता ने उन्हें ऐसा भयानक श्राप दे दिया है तो उन्होंने अपने बचाव में क्या किया!!

उग्रश्र्वा जी ने कहा

उन सर्पों में एक शेषनाग भी थे।शेषंनाग शुरू से हीं धार्मिक प्रवृति के थे.....

उन्होंने कद्रु और अन्य सर्प भाइयों का साथ छोड़ दिया। और अन्नजल त्याग, केवल हवा पी कर उन्होंने बहुत वर्षों तक बड़ी कड़ी तपस्या की. अपनी सारी इन्द्रियों को जीत वो गन्धमादन,  बद्रिकाश्रम, गोकर्ण, और हिमालय आदि की तराइयों में एकांतवास करते। उन्होंने अनेको तीर्थस्थलों की भी यात्रा की.

उनकी इस घोर तपस्या को देख एक दिन ब्रह्मा जी उनके पास आये और कहा.....

"इस तरह इतनी घोर तपस्या करके तुम जगत के लोगों को ऐसा संताप क्यों दे रहे हो? कोई और प्रजा की भलाई वाला काम क्यों नहीं करते!! आखिर तुम्हे क्या चाहिए??? … "

शेषनाग ने कहा

" हे भगवन मेरे सभी बड़े मुर्ख हैं. मेरा मन उन सर्प भाइयों की कुटिलता से बड़ा दुखी हो गया है. मैं उनसे दूर रहना चाहता हूँ. गरुड़ मेरे भाई हैं,  मैं उनसे स्नेह रखता हूँ. मैं तपस्या करके अपने इस शरीर को त्याग देना चाहता हूँ. परन्तु मुझे डर है की कहीं मृत्यु के बाद भी ना मुझे, अपने भाइयों के साथ हीं रहना पड़े !! मैं धर्मनिष्ट रहना चाहता हूँ ....।।"

यह सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा

तुम्हारे भाइयों की करतूते मुझसे छिपी नहीं हैं. वैसे भी माता की आज्ञा का उलंघन करके, वो संकट में पड़ हीं चुके हैं!! अस्तु! मैंने उसका भी परिहार सोंच रखा है. तुम उनकी चिंता मत करों। मैं तुमपे प्रसन्न हूँ , क्योंकि सौभाग्यवश तुम्हारी बुद्धि धर्म में अटल है।  तुम मनचाही वस्तु वर में मांग लो.…"

तब शेषनाग ने वर माँगा …

"हे पितामह! आप मुझे ऐसा वर दीजिये , जिससे मेरी बुद्धि सदा धर्म, तपस्या और शान्ति में सलंग्न रहे.… !!"

ब्रह्मा जी ने कहा

"ऐसा हीं हों!!!  और मैं तुम्हारे इन्द्रियों और मन के संयम से प्रसन्न हूँ, तुम मेरा एक काम करों, यह पृथ्वी बड़ी हिलती डुलती रहती है*, तुम इसे धारण कर लो जिससे यह अचल हो जाये. …"


इस पर शेषनाग जी ने कहा। …

"आप प्रजा के स्वामी हैं, मैं आपकी ज्ञान का पालन करूंगा, आप इस पृथ्वी को मेरे सर के ऊपर रख दीजिये..."

ब्रह्मा जी कहा

"शेष!! ये पृथ्वी में तुम्हे मार्ग देगी। तुम उसके अंदर घुस जाओ. इस पृथ्वी को धारण करके तुम मेरा बड़ा प्रिय कार्य करोगे....."

ब्रह्मा जी के आज्ञानुसार वो पृथ्वी के भू-विवर में प्रवेश कर गए और समुद्रों से घिरी इस पृथ्वी को चारो और से पकड़ कर अपने सर पे उठा लिया।

 ब्रह्मा जी उनके धर्म, धैर्य और शक्ति की प्रसन्नता कर वापस चले गये।


उधर सर्पों के सबसे बड़े भाई वासुकी नाग को भी माता के श्राप से बड़ी चिंता हुई और वो इसका प्रतिकार सोंचने लगे।  उन्होंने सलाह के लिए सभी भाइयों को इकट्ठा किया और कहा ….

"माता ने हमे श्राप दे दिया है। हमे उसके निवारण के बारे में सोंचना चाहिए। सारे श्रापों का प्रतिकार संभव है पर माता के श्राप का कोई प्रतिकार दिखाई नहीं पड़ता। हमे अब व्यर्थ समय नहीं गंवाना चाहिए, विप्पत्ति आने से पहले हीं उपाय करने से काम बन सकता है..... "

तब "ठीक है, ठीक है " कहकर सभी बुद्धिमान और चतुर सर्प विचार करने लगे.…

कुछ नागो ने कहा " हमलोग ब्राह्मण बनकर जनमेजय से यह भिक्षा मांगे कि वो ये यज्ञ न करे" कुछ ने कहा "हम मंत्री बन कर ऐसी सलाह दे की यज्ञ हीं न होने पावे.… " किसी ने कहा "उनके पुरोहित को हीं डंस कर मार देतें हैं, पुरोहित के मरने से यज्ञ अपनेआप रुक जायेगा .… "

इस पर धर्मात्मा और दयालु सर्पो ने कहा

राम-राम!! ब्रह्महत्या तो महापाप है। संकट से समय धर्म की रक्षा से हीं रक्षा होती है ।

कुछ नागों ने कहा

" हम बादल बनकर यज्ञ की अग्नी को हीं बुझा देंगे"

कुछ बोले "हम यज्ञ की सामग्री चुरा लायेंगे "

कुछ ने कहा "हम लाखों लोगों को डंस लेंगे "

इसके बाद सर्पों ने कहा  

"वासुके! हम तो यही सब उपाय सोंच सकते हैं? आपकी जो इच्छा लगे, अति शीघ्र करें।।।"

इस  पर वासुकि जी ने कहा..... 

आप लोगों की सलाहें अव्य्व्यहारिक  हैं। हमलोग चलकर अपने पिता कश्यप ऋषि से हीं इसका निवारण पूछते हैं। 

उनमे एक एलापत्र नामक नाग था,  उसने आगे  आकर कहा… 

"जमेजय का सर्प यज्ञ  रुकना असंभव है. इस विप्पती  का जो निवारण है , वो मैं बताता हूँ. जब माता  ने यह श्राप दिया था, उस  समय  मैं  डरकर  उन्हीं की गोद में छुप गया था. माता का  श्राप सुनकर उस वक़्त वहां ब्रह्मा जी आये और उन्होंने कद्रु के प्रशंसा की.... इस पर देवताओं  ने कहा..

'भगवन !  कठोरहृदया कद्रु  के सिवा और कौन ऐसी माता होगी जो अपने पुत्रों को हीं ऐसा श्राप दे दे और  आप इसका अनुमोदन हीं  करते हैं !! ऐसा क्यों है??  

इस पर ब्रह्मा जी ने कहा 

" देवगण! इस समय जगत में सर्प बहुत बढ़ गए हैं . वो डरावने, विषैले और क्रोधी स्वभाव वालें हैं। प्रजा के हित के लिए हीं मैंने कद्रू को नही रोका।। इस शाप से सर्फ क्रोधी विषैले और पापी सर्पों का नाश होगा, धर्मात्मा  सर्प सुरक्षित रहेंगे। यायावर  वंश में जरत्कारू नामक  ऋषि होंगे जिनके पुत्र आस्तिक इस यज्ञ को बंद करा देंगे ...."
देवताओं  के और पूछने पर ब्रह्मा जी ने ये बताया कि  जरत्कारू की पत्नी का नाम भी जरत्कारू हीं होगा और वो सर्पराज वासुकि की  बहन होगी।।।। 

".....तो सर्पराज वासुकि आपकी बहन जरत्कारू का विवाह जरत्कारू ऋषि से हीं होना चाहिए और जब भी जरत्कारू ऋषि भिक्षा में अपनी बहन का हाँथ मांगे आप उसी समय अपनी बहन उन्हें  दे दे ।।। "

एलापत्र के  ऐसा कहने पर सभी सर्प "ठीक है, ठीक है"  कहकर  प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने रास्ते चले गए और 
उसी दिन से सर्पराज वासुकि बड़े प्रेम से अपनी बहन जरत्कारू की रक्षा करने लगें । 

थोड़े दिनों के बाद समुन्द्र मंथन हुआ , जहाँ वासुकि ऋषि ने मंथन की नेति (रस्सी) बनना स्वीकार किया। उस समय उन्होंने देवताओं से ये एलापत्र वाली बात पूछी। इसपर देवता  वासुकि जी को ब्रह्मा जी के पास ले गए, और ब्रह्मा जी से वही बात दुबारा कहलवा दी.......


उसके बाद उन्होंने सारे सर्पों को जरत्कारू जी का पता  लगाने में लगा दिया और कहा 

"जैसे हीं आपको पता चले की जरत्कारू ऋषि विवाह करना चाहतें  हैं ,आप मुझे तुरंत इसकी सूचना दे । "







  




















      


Monday, January 5, 2015

जिसका यह पंख है..... Episode 9

परम पराक्रमी पक्षिराज गरुड़ फिर बड़ी वेग के साथ अमृत के स्थान में प्रवेश  करते हैं और देखते हैं कि एक बड़ा भारी लोहे का चक्र निरंतर अमृत कलश के चारो और घूम रहा है.

गरुड़ जी ने अत्यन्त सूक्ष्म शरीर धारण किया और वो चक्र के आरो के बीच से उसके अंदर प्रवेश कर गए.

वहां अमृत कलश के रक्षा के लिए दो बड़े भयंकर सर्प नियुक्त थे. उनकी लपलपाती जीभें, चमकीली आँखें और अग्नि की सी शरीर-कान्ति थी.

गरुड़ जी ने अपने चोंचों और पंजो से उन सर्पों को लहु-लुहान कर दिया और अपने परों को फैला कर उन्होने चक्र को चूर-चूर कर दिया.

फिर उन्होंने अमृत कलश अपने पंजे में उठाया और बड़ी वेग से आकश मार्ग में उड़ चले. उन्होंने स्वयं अमृत नहीं पीया। बस उसे लेकर सर्पों की तरफ उड़ चले . .… 

 उन्हें आकाशमार्ग में भगवान विष्णु के दर्शन हुए।।  भगवान ने कहा.....

"गरुड़ तुम्हारे अंदर खुद अमृत पीने की इच्छा नहीं है, यह देख मुझे बड़ा आश्चर्यजनक हर्ष हुआ. मैं तुम्हे वर देना चाहता हूँ. तुम मनपसंद वस्तु मांग लो....."

गरुड़ ने कहा

"तो भगवान एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में रखिये और दूसरा मैं बिना अमृत पीये अमर हो जाऊं … !!" 

 भगवान बोले

"तथास्तु"

तब गरुड़ जी बोले ....

"भगवान मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ, आप भी मुझसे कुछ मांगिये… ।"

भगवान विष्णु ने कहा

"तुम मेरे वाहन बन जाओ "

गरुड़ ने कहा

"ऐसा हीं होगा…" और उनकी आज्ञा लेकर उन्होंने अमृत के साथ आगे की यात्रा  की.....

उधर तब तक इंद्र को होश आ चुका था, और उन्होंने बड़े क्रोध में अपने वज्र से गरुड़ पे प्रहार किया.

गरुड़ वज्राघात होते हुए भी हँसते-हँसते बोले …… 

"हे इन्द्र! तेरे वज्र की शक्ति से तो नहीं लेकिन जिनकी हड्डियों से यह वज्र बना है, उनके मान के लिए मैं अपना एक पंख गिराये देता हूँ.. ..।"   

उस पंख को देख कर लोगों को बड़ा हर्ष हुआ और सबों ने कहा.…

"जिसका यह पंख है उस पक्षी का नाम सुपर्ण हो…।"

 इंद्रा को बड़ा आश्चर्य हुआ.....

वो उनके पास गए और कहा

"हे पक्षिराज!! आपने में कितना बल है!!! मुझे बताएँ!!  और साथ हीं मैं आपसे मित्रता भी चाहता हूँ.…

और आप खुद तो अमृत पीते नहीं, अगर आपको इसकी जरूरत नहीं हो तो आप कृपया ये मुझे दे दें क्योंकि आप जिन्हे ये अमृत देना चाहते हैं, उन्हें अमृत मिलने से वो हमे बड़ा कष्ट देंगे.... "

गरुड़ जी ने कहा

"देवराज!! अमृत को ले जाने का एक कारण हैं!!!! मैं इसे किसी को पिलाना नहीं चाहता, मैं इसे ले जाकर जहाँ भी रखूँ, वहां से आप इसे उठा ले आइएगा….।  " 

देवराज उनकी बात से संतुष्ट हो गए और उन्होने गरुड़ जी से वर माँगने को कहा.……

गरुड़ सर्पों के छल से बड़े दुखी थे… उन्होंने उन्हें हीं अपना आहार बनाने की सोंची और वर माँगा   …

"ये सर्प हीं मेरा आहार बने।। "

इंद्रा ने कहा "ऐसा हीं हो। "

इस तरह से गरुड़ अमृत लेकर सर्पों  के पास पहुंचे और वहां उनकी माता भी थी. वहां पहुँचकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक यह कहा.… 

" लो!! मैं अमृत ले आया, मगर इसे पीने में ऐसी जल्दी भी ना करो और पहले  स्नान करके पवित्र हो जाओ, तब तक मैं इसे यहीं इस कुश पे रखे देता हूँ.…

और अब तुमलोगों के कथनानुसार मैं अमृत ले आया हूँ, इससे मेरी माता अब तुमलोगों के दासत्व से मुक्त होती है.… "

सर्पों ने स्वीकार कर लिया और वो बड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्नान के लिए चले गयें, तब तक इंद्र वहां से अमृत-कलश उठाकर स्वर्गलोक चले गये…

जब सर्प नहा कर लौटे तो उन्होंने देखा की अमृत कलश वहां पे नहीं है, तो उन्हें लगा की जो छल उन्होंने विनीता के साथ किया था, आज उन्हें उसी का फल वहां मिला है....

फिर उन्होंने सोंचा की अमृत कुश में रखा गया था तो हो सकता है उसका कुछ हिस्सा उसमे लग गया हो, और वो उन कुशों को हीं चाटने लगे, जिससे उनकी जिह्वा दो भागो में बट गयी। ।

चूंकि अमृत को कुश के ऊपर रखा गया था इसिलए उस दिन के बाद से कुश को पवित्र माना जाने लगा।।।।

  













 

Sunday, January 4, 2015

परम पराक्रमी पक्षिराज गरुड़ !!!" Episode 8

सर्पों की यह मांग सुनकर गरूड़ जी अपनी माता के पास आये और उन्होंने उनसे कहा.…

माता ! मैं अमृत लाने जा रहा हूँ। आप मुझे ये बताइये की मैं रास्ते में क्या खाऊंगा!!! …"

तब उनकी माता विनीता ने गरुड़ से कहा.…  

"समुद्रों में निषादो* की एक बस्ती है. तुम उन निषादों को खा कर अपना पेट भर लेना, मगर एक बात का ध्यान रखना कि कभी गलती से भी किसी ब्राह्मण को मत खा लेना। वो सभी के लिए अवध्य हैं।।।। …"


माता की आज्ञा के अनुसार, उन्होंने निषादों की उस बस्ती में जाकर, निषादों को खाया मगर इससे उनकी भूख नहीं मिटी * और उधर गलती से उनके मुँह में एक ब्राह्मण भी आ गया था...

हालाँकि उन्होंने तुरंत उस ब्राह्मण को अपने मुँह से निकाल दिया, पर फिर भी इस कारण उनका तालु जलने लगा, अतः वो अपने पिता कश्यप ऋषि के पास आ गए.

कश्यप ऋषि गरुड़ जी को देख कर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे पुछा .... 

"तुमलोग ठीक से तो हो ना!! भोजन वोजन तो ठीक से हो जाता हैं ना!!!"   

 गरुड़ जी ने कहा

"मेरी माता सकुशल है, और मैं भी खुँश हूँ, मगर इच्छानुशार भोजन न मिलने की तकलीफ है, मैं अभी अपनी माता को सर्पों के दासत्व से छुड़ाने के लिए अमृत लाने जा रहा हूँ,…

मैंने माता से पुछा था कि रास्ते में क्या खाऊं*, तो उन्होंने कहा था कि समुद्र में निषादों की एक बस्ती है, तुम वहां के निषादों को खा कर अपना पेट भर लेना…

मैंने उन सारे निषादों को खा लिया है, मगर मेरी भूख अभी भी शान्त नहीं हुई है, अब आप मुझे कुछ बताइये जो खा के मैं अमृत ला सकूँ !! *  

तब कश्यप जी ने उनसे कहा 

यहाँ से थोड़ी दूर पर एक सरोवर है, वहां पर एक कछुआ और हाथी* रहते हैं, तुम उन्हें खा कर अपनी भूख मिटा लो.… दरअसल ये कछुआ और हाथी पिछले जन्म में भाई थे, परन्तु एक दूसरे के शत्रु हैं...

पिछले जनम में उन्होंने सम्पति को लेकर हुए आपसी  झगडे में ईर्ष्या और क्रोधवश एक दूसरों को श्राप दे दिया था कि  "तुम कछुआ हो जाओ" और "तुम हाथी हो जाओ"

और इस तरह उन्होंने अब कछुए और हाथी की योनि में जन्म लिया हैं, और आज भी आपस में लड़तें रहतें हैं

हाथी छह योजन ऊंचा और बारह योजन लम्बा है और कछुआ तीन योजन लम्बा और दस योजन गोल है, ये बड़े हिंसक तरीके से एक दुसरे से लड़तें रहतें हैं……* तुम उन्हें खा कर अपनी भूख मिटा लो!!!

पिता के निर्देशानुषार गरुड़ जी उस सरोवर में पहुंचे और एक पंजे में कछुए और दुसरे में हाथी को पकडे उड़ चले.…

चलकर वो अलम्ब तीर्थ आ पहुंचे ।

वहां जब वो सुवर्ण पर्वत पर उतरने लगे, तो वहां के देववृक्ष जो पहले लहलहा रहे थे, उन्हें अपने उपर उतरते देख वो भय से कांपने लगे, यह देख गरुड़ जी दूसरी तरफ जाने लगे तो एक विशाल वट वृक्ष ने उनका स्वागत करते हुए कहा

"आप मेरे सौ योजन लम्बी शाखा में बैठ कर, आराम से इस कछुए और हाथी को खाइये …!!!! "

गरूड़ जी उस शाखा पे बैठ गए पर जैसे हीं वो शाखा पे बैठे वो शाखा चरमरा कर टूट पडी.… 

हालांकि गिरते-गिरते गरुड़ जी ने शाखा को पकड़ लिया,पर क्या देखतें हैं कि उसी शाखा के एक डाल पे वालखिल्य नामक ऋषिगण पावों के बल लटक कर साधना कर रहें हैं!!

गरुड़ जी को लगा अगर डाल गिर गयी तो ऋषिगण मर जाएंगे और इसी करुणा में कि कहीं डाल के गिरने से ऋषिगण मर ना जाएँ, उन्होंने उस शाखा को अपने चोंच में पकडे रखा और हवा में हीं विचरते हुए उतरने का कोई उचित स्थान ढूंढने लगे.… 

पर वो जहाँ से भी गुजरते उनके वेग और बल से वहाँ आँधिया चलने लगती और आखिरकार उतरने का कोई स्थान ना पाकर, वो वापस गन्धमादन पर्वत में कश्यप जी के पास हीं पंहुचे।

कश्यप जी जब देखा कि गरूड़ चोंच में एक डाल उठायें हुए हैं, जिसमे वालखिल्य ऋषिगण लटक कर साधना कर रहें हैं, तो उन्होंने गरुड़ जी को सावधान किया और कहा.... 

"देखों साहस में कुछ ऐसा मत कर बैठना जिससे इन ऋषिगणों की साधना भंग हो जाए, और सूर्य की किरण पी कर तपस्या करने वाले ये वालखिल्य ऋषिगण कहीं क्रोधित हो कर तुम्हे कोई श्राप ना दे बैठे!!!! "

फिर उन्होंने खुद हीं वालखिल्य ऋषिगणों से प्रार्थना की.…

"हे ऋषिगण!! गरुड़ प्रजा के हित के लिए एक महान काम करने जा रहें हैं इसलिए आप लोग इन्हें जाने दें …!!"

वालखिल्य ऋषिगणों ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उन्होंने वो डाल छोड़ दी और तपस्या करने के लिए वो वहां से हिमालय पर्वत की तरफ चले गये...


फिर गरूड़ जी ने वो शाखा फेंक दी और पर्वत की चोंटी पे बैठ कर उन्होंने उस कछुए और हाथी को खाया और फिर से वो अमृत लाने के लिए उड़ चले ।।।


तब गरुड़ के नज़दीक आने से हो रहे भयंकर उत्पातों को देख देवराज इंद्र, अपने गुरु बृहस्पति जी के पास पहुंचे और उनसे पुछा....

"भगवन! ऐसा तो कोई शत्रु प्रतीत नहीं होता जो मुझे युद्ध में जीत ले, फिर अचानक से ये उत्पात क्यों हो रहे हैं!!!! "  

बृहस्पति जी ने कहा

"देवराज! तुम्हारे अपराध और प्रमाद के कारण तथा वालखिल्य ऋषिजनो के तपोबल से सज्जित होकर विनीतानन्दन गरुड़ अमृत लेने के लये यहीं आ रहा है, और लगता है उसके वेग, बल और तेज के आगे कोई ठहर भी नहीं पायेगा और लगता है वो यहाँ से अमृत लेकर हीं जायेगा. …"

ये सुनकर इंद्र ने अमृत के रक्षकों को सतर्क कर दिया.… 

"परम पराक्रमी पक्षिराज गरुड़ अमृत  लेने के लिए इधर हीं आ रहें हैं, आप सतर्क रहें ताकि वो बल पूर्वक यहाँ से अमृत न ले जा पाएं !!.... "

स्वयं इंद्र भी अमृत को घेर कर उसकी रक्षा में खड़े हो गएँ।


लेकिन गरुड़ ने वहां पंहुचते हीं अपने पंजो से इतनी धुल उड़ाई की देवताओं को कुछ भी दिखना बंद हो गया. उसके बाद उन्होंने अपने डैनों , चोंचों और पंजो से उन्हें मार मार कर घायल कर दिया. इंद्र ने वायु से कहा 

"वायुदेव! ! तुम यह धूल का पर्दा फाड़ दो! यह तुम्हारा कर्तव्य है.. " 

वायु देवता ने वैसा हीं किया.…चारो और साफ़ साफ़ दिखने लगा और देवताओं ने भी गरूड़ के ऊपर प्रहार किया, पर उनके अश्त्र-शस्त्रों के प्रहार से गरुड़ थोड़े भी विचलित नहीं हुए.…

और कुछ हीं देर में सारे देवतागण बुरी तरह से लहू- लुहान हो कर तीतर-बितर हो गए.… 


अब गरुड़ आगे बढ़े तो देखते है कि अमृत के चारो तरफ ज्वाला धधक रही है, उन्होंने आठ हज़ार एक सौ मुँह बनाये और उनमे बहुत सारी नदियों का जल भरा और उसे उस ज्वाला में उड़ेल दिया....और अग्नि के शांत होने पर उन्होंने छोटा सा शरीर धारण किया

और आगे बढ़े ....

गरूड़!! तुम हमे अमृत ला दो !!! Episode 7

तो शाम में वन में विचरते हुए कद्रू और विनीता ने उसी उच्चै:श्रव़ा घोड़े को देखा था.… 

 घोड़े को देखकर कद्रू ने विनीता से कहा

"बहन जल्दी बताओ ये घोडा किस रंग का है???"

विनीता ने कहा 

"यह घोडा तो बिलकुल चन्द्रमा के प्रकाश के सामान श्वेतवर्ण* का है ।।"

कद्रू ने तुरंत कहा

"नहीं घोड़े का सारा शरीर तो बिलकुल चंद्रमा के किरणों की तरह उजला है पर इसकी पूँछ काली है, आओ हम इसी बात पे शर्त लगते हैं कि अगर तुम्हारी बात सही हुई तो मैं तुम्हारी दासी बन कर रहूंगी नहीं तो तुम्हे मेरी दासी बनना पडेगा।।। …"

 और दोनों ने इस तरह एक दुसरे की दासी बनने की शर्त लगा ली और विचार किया की कल सुबह वो फिर इसी जगह पे घोड़े को दुबारा देखने के लिए आएंगी. 

और उसके बाद दोनो बहने ख़ुशी ख़ुशी कल के इंतज़ार में वापस लौट आयी. 

कद्रु ने शर्त जीतने के उद्देश्य से अपने सारे सर्प पुत्रों को रात में बुलाकर कहा  

"कल सुबह जब हमलोग घोड़े को देखने जाएंगे, उस वक़्त तुम सभी उस घोड़े की पूँछ में जाकर लिपट जाना ताकि उसकी पूँछ काली लगे और मैं शर्त जीत जाऊं और विनीता मेरी दासी हो जाए * …" 

जब सर्पों ने आज्ञा मानाने से इंकार किया तो उसने उन्हें श्राप दे दिया कि 

"तुम सभी जनमेजय के सर्प-यज्ञ में  जलकर भष्म हो जाओगे।।।। .... "* 

उसके बाद वो दोनों बहने बड़ी बेचैनी के साथ कल सुबह के इंतज़ार में जा कर सो गयीं …

माता के श्राप* से सारे सर्प घबरा और डर गए और उन्होंने रात में मंत्रणा की और यह निर्णय किया की वो अपनी माता की आज्ञा का पालन करेंगे…

और वो अगली सुबह उच्चै:श्रवा के पूँछ से जाकर लिपट गए जिस कारण जब दोनों बहनो ने सुबह में घोडे को देखा तो उसका पूरा शरीर तो सचमुच श्वेतवर्ण का था पर उसकी पूँछ सर्पों के छल के कारण काली दिख रही थी. 

इस तरह कद्रु ने छल से विनीता को शर्त में जीतकर उसे अपनी दासी बना लिया।। 

बहुत समय बाद, समय पूरा होने पर एक दिन अचानक बिना विनीता की सहायता के स्वयं हीं दूसरा अंडा फूट गया और उससे महातेजस्वी गरूड़ जी उत्पन्न हुए और उनका आकर और तेज बढतां ही चला गया जिससे चारों तरफ एक कोलाहल मच गया। 

देवताओं को लगा मानो स्वयं अग्निदेव* हीं अंडे से प्रकट हो रहें हो और देवतागण हाथ जोड़े अग्निदेव के पास जा पहुंचे और उनसे विनती की कि 

"अग्निदेव ! आप कृपया कर के अपना शरीर और न बढ़ाएं क्योंकि आपके तेज से हम सभी भष्म हो रहें हैं!!!…" 

अग्निदेव ने कहा 

देवगणो!!  वो मेरी मूर्ति नहीं है बल्कि ये विनीतानंदन परम तेजस्वी पक्षिराज गरूड़ हैं!! ये सर्पों और असुरों के अहितैषी और आपके मित्र हैं. आइये हम सब चलकर उनका नमन करें !!! 

और उन्होंने आकर गरूड़ जी की स्तुति* की. 

उनकी स्तुति सुनकर गरूड़ जी ने कहा 

"देवताओं आप घबराएं नहीं मैं अभी अपना आकार छोटा और तेज कम कर लेता हूँ … "

 एक दिन विनीता जब गरुड़ जी के साथ बैठी हुई थी तो कद्रु ने आकर विनीता से कहा 

"समुंद्रलोक के अंदर नागों का बड़ा हीं पवित्र स्थल है जो मुझे देखना है। तुम मुझे और मेरे पुत्रों को अपने पुत्र गरूड  की पीठ पर बिठा कर वहां तक ले चलो..... "

गरूड ने माता की आज्ञा से कद्रूँ और उनके सर्प पुत्रों को अपने कंधे पे बिठा लिया और आकाश मार्ग से चल पडें और उनके वांछित स्थान पे उन्हें पहुँचा दिया. इस यात्रा में सर्पों ने बहुत सारे रमणीक दृश्य देखें, और वहां अपने तीर्थस्थल के लवणसागर और मनोहर वन में खूब खेल-कूद और मस्ती करी.…  

उन्हें और भी घूमने का मन करने लगा।।। उन्होंने गरूड जी से कहा 

"तुमने तो आकाशमार्ग में विचरते हुए और भी कई रमणीक जगहों को देखा होगा।। हमे बारी बारी से उन सभी जगहों पे ले चलो.... "

सर्पों की बात सुनकर गरूड़ जी सोंच में पड़ गए और उन्होंने अपनी माता विनीता से पुछा

"सच सच बताओ हमे सर्पों की हर बातों को क्यों मानना पड़ता है???"

इस पर विनीता ने अपने छल से शर्त हारने वाली बात गरूड को बता दी. 

इस पर गरूड जी सर्पों के पास गए और उनसे पुछा 

"ठीक ठीक बताओ मैं तुमलोगों को ऐसी कौन सी वस्तु ला दूँ या किस बात का पता लगा दूँ अथवा और कोई भी उपकार जो मैं कर दूँ जिससे मेरी माँ विनीता दासत्व से मुक्त हो जाए।।।।।.… "

 सर्पों ने कहा

तुम हमे अमृत ला दो !!!!*






Saturday, January 3, 2015

समुद्र मंथन*!!! Episode 6

मेरु नामक एक पर्वत है जो इतना चमकीला है कि मानो तेज की राशि का हीं बना हो.

उसी पे बैठ कर एक दिन सारे देवता अमृत प्राप्ति के बारे में विचार कर रहें  थे. उनके साथ ब्रह्मा जी और नारायण भी थे . नारायण ने देवताओं को कहा

" देवता और असुर मिलकर अगर समुद्र मंथन करेंगे तो उससे अमृत की प्राप्ति होगी"

देवताओं ने मन्दराचल पर्वत को उखाड़ कर उसी से समुद्र मथन करने के सोचीं. लेकिन जब पूरी ताकत लगाने के बाद भी जब वो पर्वत नहीं उखाड़ पाये तो उन्होंने भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी से प्रार्थना की.

 तब उन्होंने शेषनाग को इस पर्वत को उखाड़ने की आज्ञा दी. 

शेषनाग ने अपना पूरा बल लगा कर वन और वन-वासियों* के साथ इस मन्दराचल पर्वत को उखाड़ लिया.

अब मन्दराचल पर्वत को लेकर वो समुद्र तट पे पहुंचे और वहाँ पहूँच कर समुद्र से कहा

"हमलोग तुम्हारा मंथन करकर अमृत निकालेंगे "

इस पर समुंद्र ने कहा*

"अगर आपलोग मुझे भी थोड़ा अमृत देंगे तो इस मंथन से जो कष्ट होगा वो मैं बर्दाश्त कर लूँगा "

देवतागण इसके लिए तैयार हो गए।।।।

अब मंथन के लिए उन्होंने वासुकि नाग जी को रस्सी बनने के लिए और कच्छप राज को आधार बनने लिए प्रार्थना की.

आप क्रिएटिविटी देखिये!!!


तो इस तरह वासुकि नाग को रस्सी, मन्दरांचल पर्वत को मथनी और  कच्छप राज को बेस या आधार बनाकर समुद्र मंथन शुरू हुआ !!!!!

अब देवता-गण वासुकि नाग के पूँछ की तरफ थे और असुर मुँह की तरफ!!! *

बार बार रगड़े जाने के कारण वासुकि नाग के मुख से धुँआ और अग्नि निकलती जो ऊपर आकाश में जाकर मेघ बन जाती और जिससे बड़ी शीतल बारिश होती जो मंथन करने वालों के थकान को काम कर देती।।।

मंथन  से मन्दरांचल पर्वत के पेड़ों से फूल झड़- झड़ कर गिरने लगें।।।। 

इस तरह इस मंथन से मन्दरांचल पर्वत के वनो के वृक्षों से रस और दूध चू चू कर समुद्र में मिलने लगे. और धीरे धीरे पूरा समुद्र दूध बन गया और फिर दूध से घी बनने लगा।।।

धीरे धीरे सारे देवता और असुर,  सिवाय  नारायण के, सभी थक गए तो ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु से मंथन करने वालों को बल देने को कहा.....

 विष्णु भगवान ने कहा

" अच्छा मैं अब आप सभी लोगों में दुबारा बल देता हूँ।।। अब आपलोग थोड़ा अपनी पूरी ताकत लगा कर जरा जोर-जोर से घूमावें और समुद्र को क्षुब्द्ध कर दे !!!"

फिर क्या था!!  

सारे देवताओं और असुरों ने मिलकर एक बार फिर से दुबारा पूरा जोर लगा कर मंथन शुरू किया,  जिससे सारा समुद्र क्षुब्द्ध हो गया।

तब उस समुद्र से अनगिणत किरणों वाला शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेतवर्ण का चन्द्रमा उत्त्पन्न हुआ।  

चन्द्रमा के बाद भगवती लक्ष्मी और सूरा देवी ( दोनों साथ निकली थोड़ा ध्यान दे !!) निकली  

उसी समय उच्चेःश्रवा नामक घोडा निकला. 

फिर भगवान नारायण के वक्ष स्थल पर शुशोभित होने वाला कौस्तुभ मणि और फिर वांछित फल देने वाला कल्प वृक्ष और कामधेनु गाय भी निकले. 

लक्ष्मी, सूरा देवी, चन्द्रमा और उच्चैश्रवा ये सभी आकाश मार्ग से देवतालोक में चले गये.

 उसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए जो अपने हांथो में श्वेत कमंडल में अमृत धारण किये हुए थे .

इसी मंथन से कालकूट विष निकला जिसे सभी के आग्रह पे भगवान शिव ने अपने गले में धारण  किया, जिसके कारण उनका गाला नीला हो गया और वो नीलकंठ के नाम से प्रसिद्द हुए.

अब अमृत और लक्ष्मी को देख कर दानवों में कोलाहल मच गया और 

ये मेरा है ये मेरा है कह कर वहां पे झगड़ा शुरू हो गया... 

तब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर असुरों से अमृत कलश ले लिया और देवताओं ने उनके पास जा कर अमृत पी लिया.

राहु और केतु नामक दो असुर भी देवताओं का भेस बना कर अमृत पीने लगे मगर सूर्य और चन्द्रमा ने उनका भेद खोल दिया. 

इस बात पे भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उनका गला काट दिया और तब से आज तक राहु और केतु की सूर्य और चन्द्रमा से  दुश्मनी है.

इसके बाद एक भयंकर संग्राम हुआ देवताओं और असुरों के बीच जिसमे देवताओं की जीत हुई.*

और इसके बाद मन्दरांचल पर्वत को पूरे सम्मान के साथ वापस अपने जगह पे पंहुचा दिया गया और सारे देवता अपने अपने लोकों में चले गये. 

 देवताओं और इंद्र ने अमृत भगवान नर को दे दिया.

यही है समुद्र मंथन की कहानी!!!  



   

अरुण !! Episode 5

इस बात को सुनकर शौनक जी ने उन्हें आस्तिक ऋषि की कहानी सुनाने को कहा जिन्होंने सर्प यज्ञ में सर्पो की रक्षा की थी*


उग्रश्रवा ऋषि जी ने कहानी शुरू की, जो की अब हमें सर्पों के इतिहास* में ले जाता है....

सतयुग में दक्ष प्रजापति की दो कन्याएं थी*. कद्रु और विनीता।। 

उनका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था. 

एक दिन कश्यप ऋषि बड़े प्रसन्न हुए अपनी पत्नियों की सेवा से और उनसे वर मांगने को कहा...

 कद्रु ने माँगा

"एक हज़ार तेजस्वी नाग मेरे पुत्र हो"

विनीता ने माँगा

"केवल दो हीं, पर तेज, शरीर और बल-विक्रम में कद्रु के १००० पुत्रों से श्रेष्ठ, केवल दो हीं पुत्र मेरे हो!!!! "
 
कश्यप ऋषि ने उन्हें अपने गर्भ की रक्षा करने की आज्ञा दी और खुद वन में चले गए...

समय आने पर कद्रुने एक हज़ार और विनीता ने दो अंडे दिए.. !!*

पांच सौ वर्ष  के बाद कद्रु के एक हज़ार अण्डों से एक हज़ार  पुत्र निकल आये मगर विनीता के दो अंडे वैसे हीं रह गए...

विनीता ने अपने हांथों से एक अंडा फोड़ दिया।।।

उस अंडे के अंदर से एक शिशु निकला जो की आधे शरीर से तो पूरा पुष्ट था मगर नीचे का आधा शरीर अभी कच्चा हीं था.

नवजात शिशु ने बहुत क्रोधित होकर अपनी माता को ये श्राप दिया

" तूने सौत की डाह में आकर मुझे आधे कच्चे में हीं बाहर निकाल दिया है इसलिए अब तू अपने सौत की अगले ५०० वर्ष तक दासी रहेगी और अगर तूने दुसरे अंडे को भी समय से पहले नहीं फोड़ा तो वही बच्चा तुम्हे इस दासत्व से मुक्त करायेगा "

इसके बाद वो आकाश में उड़ गया और सूर्य का सारथि बना. 

सूर्योदय के समय जो प्रातःकालीन लालिमा है वो उसी की झलक है. उस बालक का नाम अरुण हुआ।।।*

एक दिन शाम में दोनों बहने वन में घूम रहीं थी तभी वहां उन्हें आकाश में उच्चैश्रवा* घोडा दिखा।।।यह बड़ा हीं तेजस्वी अश्व था और वो समुद्र-मंथन के समय  में समुद्र से निकला था.....


अब जैसे हीं समुद्र-मंथन का जिक्र हुआ वहां मौजूद लोगों ने   उग्रश्रवा ऋषि से समुद्र-मंथन की कहानी सुनाने को कहा। 

 और उनके आग्रह पे उन्होंने समुद्र-मंथन की  अदभुत कथा उन ऋषिगणो को वहां पे सुनाया.

सचमुच अद्भुत कथा है समुद्र मंथन की. 

आप बस इमेजिनेशन एंड क्रिएटिविटी देखिए.  

उत्तंक और तक्षक Episode 4

तो तीसरा शिष्य था वेद।।।

उससे गुरु ने कहा कि .....

"तुम अभी कुछ दिन घर में हीं रहकर मेरी सेवा-शुश्रूषा करो।।  तुम्हारा भी कल्याण होगा।।।

 तो उसने बहुत दिनों तक गुरु के घर में रहकर ब्रह्मचर्य  व्रत का पालन करते हुए गुरु की बड़ी सेवा की. गुरु उसपे बैलों सा बोझ लाद देतें।।। 


आखिरकार एक दिन गुरु प्रसन्न हुए और उसे भी कल्याण और सर्वज्ञान का वार दिया.

अब देखिये बाद में वेद के भी तीन शिष्य हुए और उसमे से एक शिष्य था उत्तन्क ।।

चूँकि वेद  गुरु-घर के कष्ट को जानता थे तो उसने कभी भी अपने शिष्यों से किसी भी तरह का काम नहीं लिया. 

एक बार राजा जनमेजय ने वेद को अपना पुरोहित नियुक्त किया तो जब भी वो पुरोहिती के काम से कभी बहार-वाहर जाते तो अपने इसी शिष्य उत्तंक को घर की ज़िम्मेदारी दे कर जाते.

एक बार बाहर से लौट कर जब उन्होंने अपने शिष्य के सदाचार की बड़ी तारीफ सुनी तो उसे अपने उसे अपने पास बुलाया और कहा


"बेटा तुमने धर्मनिष्ट रहकर मेरी बड़ी सेवा की है तुम्हारा बड़ा कल्याण होगा अब तुम जाओ....."

उत्तंक ने उनसे कहा

" गुरु जी आप कुछ गुरु दक्षिणा मांगिये ।।।"

गुरु तो इन बातों का कष्ट जानते थे, उन्होंने मना कर दिया. 

उत्तंक ने फिर भी ज़िद किया तो गुरु वेद ने कहा.… 

"मुझे तो कुछ नहीं ना हो तो गुरुआनी से पूछ लो... "

उत्तंक मैडम के पास गया और उसने उनसे पुछा

" आप बताइये अगर मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ...."

गुरुआनी ने कहा.…

" तुम राजा पौष्य के पास जाओ और उनकी रानी का कुण्डल मांग कर लाओ।  मैं उसे पहन कर आज से चार दिन बाद ब्राह्मणो को भोजन परोसना चाहती हूँ। अब ऐसा कर दो तो तुम्हारा कल्याण होगा और नहीं तो नहीं।।। "

 तो उत्तंक चल पड़ा राजा पौष्य के पास. रास्ते में उसे एक आदमी बैल में चढ़ा हुआ दिखाई दिया। उस आदमी ने उत्तंक से कहा

तुम इस बैल का गोबर और मूत्र खा लो !!!! 

उत्तंक ने मना किया तो उसने कहा


"तुम्हारे गुरु ने भी इस  बैल का गोबर और मूत्र खाया है तो तुम भी बिना सोंचे बस खा लो.… "
 
ऐसा सुनकर उत्तंक ने गोबर खा लिया और जल्दी- जल्दी में बिना कुल्ला किये चल पड़ा 

और आखिरकार आ पहुँचे अपनी मंज़िल यानी राजा पुष्य की सभा मे.....

उत्तंक ने राजा पुष्य को आशीर्वाद दिया और अपने आने का मनतव्य बताया...

" मैं यहाँ आपसे कुछ मांगने आया हूँ।।। "

उसकी बात सुनकर राजा पौष्य ने उसे रनिवास में भेज दिया.


अन्तःपुर में रानी को ना पाकर  वो दुबारा राजा के पास पंहुचा और कुछ  उलाहने के भाव से कहा

"रानी तो अन्तःपर में हैं हीं नहीं।।।। "

राजा पुष्य ने कहा


" मेरी पत्नी बड़ी पतिव्रता है और कोई भी अशुद्ध मनुष्य उसे नहीं देख सकता..... "

उत्तंक को याद आया

" मैंने गोबर खाने के बाद चलते- चलते हीं आचमन कर लिया था. 

राजा ने कहा

" चलते चलते आचमन करना गलत है।।। "

तो उसने पुनः पूर्व दिशा में बैठकर ठीक से अपने हाँथ पाव धोएं और शुद्ध जल से पुनः आचमन किया और ऐसा कर कर वो पुनः अन्तःपुर में पहुँचा।।।


तब उसे वहां रानी दिख गयीं और रानी ने उसे अपना कुण्डल भी दे दिया और सावधान किया  कि

" ध्यान रहे!! नागराज तक्षक  ( आ गया!!) भी इस कुण्डल के पीछे है;  थोड़ा सावधान रहना …"

उत्तंक  कुण्डल लेकर चल पड़ा. 

रास्ते में चलते चलते उसने देखा की एक नग्न क्षपणक* (मतलब नंगा साधू) उसके पीछे लगा है जो कभी प्रकट होता है तो कभी छिप जाता है।।।।  ये नंगा क्षपणक और कोई नहीं तक्षक हीं था।।। वही उसके पीछे लगा था!!!
 
जैसे हीं थोड़ी देर बाद वो कुण्डल को रखकर पानी लाने गया,  तक्षक उतने में हीं कुण्डल लेकर भाग गया।

उत्तंक भी रुका नहीं,  उसने भी इंद्र* के वज्र की सहायता से तक्षक का नागलोक तक पीछा किया।।।

 आखिरकार डरकर तक्षक कुण्डल छोड़ कर भाग गया .

और फिर  उत्तंक ने गुरुआनी को कुण्डल देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया.

लेकिन उत्तंक तक्षक से बहुत नाराज़ था और वो बदले के इरादे से हस्तिनापुर पंहुँचा.

आपको याद होगा जनमेजय तक्षशिला पे चढ़ाई करने गए हुए थे मगर तब तक वो विजय  प्राप्त कर लौट चुके थें.*

 
उत्तंक ने जाकर राजा जमेजय को बताया कि

"महाराज इस तक्षक नाग ने हीं आपके पिता को डंसा था.  कश्यप ऋषि जो आपके पिता की रक्षा करने के लिए आ रहे थे उसे इसी ने वापस लौटा दिया था . आप एक यज्ञ कीजिये जिसमे ये सारे सर्प यज्ञ कुण्ड में गिरकर-जलकर भष्म हो जाये. 

आपके इस यज्ञ से इस विश्व को विषैले सर्पों  से छुटकारा मिलेगा और आपका बदला पूरा होगा और मुझे भी अतीव प्रस्सन्न्ता होगी.… 


और अब शुरू होती हैं सर्पों* की कहानी....

  

तीन चेले and the first villain * ... एपिसोड 3

उन्हीं दिनों वहां आयोदधौम्य नामक एक और ऋषि रहा करते थे जिनके बहत सारे शिष्यों में तीन प्रमुख शिष्य थे, आरुणि, उपमन्यु और वेद.

आरुणि* जो की पांचाल देश का रहने वाला था, उसे एक दिन  ऋषि ने खेत के मेड़ों की रक्षा करने भेजा।

बहुत प्रयत्नों के बावजूद जब वो मेड को बारिश के पानी के प्रकोप से नहीं बचा पाया तो वो खुद हीं मेड बनकर लेट गया.

बहुत देर तक आरुणि को आश्रम में न देख कर जब ऋषि ने आरुणि के बारे में पुछा तो शिष्यों ने कहा

" गुरूजी  आपने हीं तो उसे खेतों के मेड की रक्षा में भेजा है… " 

तब ऋषि ने अपने शिष्यों से कहा 

"चलो!!  उसके के पास चलते हैं" 

और खेत के पास आ कर वो पुकारने लगे 

" बेटा आरुणि!! बेटा आरुणी तुम कहाँ हो... मेरे पास आओ!! "

गुरु की आवाज़ सुन कर आरुणि उठ खड़ा हुआ और  आकर उनसे बोला... 

" भगवान मैं यहाँ हूँ!! जब मैं किसी भी प्रयत्न से मेड को बारिश के प्रकोप से नहीं बचा पाया तो मैं खुद हीं मेड बन कर लेट गया और जब मैंने ये एकाएक आपकी आवाज़ सुनी तो मैं मेड को तोड़ कर उठ खड़ा हुआ और अब फिर से आपकी सेवा में उपस्थित हूँ … आप आज्ञा करें ..."

गुरु ने कहा 

" बेटा तुम मेड़ों का उद्यल्लन ( तोड़-ताड़) कर खड़े हुए हो इसलिए आज से तुम्हारा नाम उद्दालक होगा और चूँकि तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है इसलिए तुम्हे सारे वेद और धर्मशास्त्र का ज्ञान बिना पढ़े* हीं हो जाएगा....  " 

गुरु का आशीर्वाद पाकर वो अपने अभिस्ट स्थान पे चला गया . *

दूसरा शिष्य था उपमन्यु।  उसकी कहानी थोड़ी  ज्यादा मज़ेदार है...

आचार्य ने उसे गायों की रक्षा का काम दिया. 

वो दिन भर गाय चराता और शाम को वापस आश्रम में आ जाया करता। आचार्य ने एक दिन उससे पुछा

" बेटा तुम बड़े स्वस्थ और बलवान दिखते हो।। खाते क्या हो??? "

उपमन्यु ने कहा 

"आचार्य मैं नगर में भिक्षा मांग कर खा लेता हूँ ..."

आचार्य ने कहा

 " बेटा तुम्हे बिना मुझे निवेदन किये भिक्षा नहीं खानी चाहिए..."

अगले दिन से उपमन्यु अपनी सारी भिक्षा ला कर उन्हें निवेदित कर देता और गुरु भी सारी भिक्षा खुद हीं रख लेते ... 

कुछ दिनों बाद  दुबारा उसे उतना हीं स्वस्थ देख गुरु ने पुछा 

"बेटा तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं रख लेता हूँ;  तुम अब क्या खाते हो ..."

उपमन्यु ने कहा 

"मैं आपको निवेदित करने के बाद दुबारा जा कर भिक्षा मांग लेता हूँ ... " 

यह सुन कर गुरु ने कहा 

"बेटा ऐसा करना तो अन्तेवासी ( जो गुरु के साथ रह कर पढता हो) के लिए बहूत हीं अनुचित बात है... इससे तो  गृहस्थों के ऊपर दुगना बोझ पड़ता होगा और ऐसा कर कर तुम बाकी विद्यार्थियों के जीविका में भी अड़चन डालते होगे और इसमें तुम्हारा लोभी स्वाभाव भी छलकता है...

कुछ दिनों के बाद शाम में उसे गाय चराकर लौटते देख गुरु  ने उससे पुछा 

"बेटा तुम्हारी सारी भिक्षा तो अब मैं रख लेता हूँ,  दुबारा तुम भिक्षा मांगते नहीं फिर तुम क्या खाते पीते हो क्योंकि तुम तो अभी भी उतने हीं मोटे-ताजे दीखते  हो " 

 उपमन्यु ने कहा 

"महाराज मैं गायों का दूध पी लेता हूँ "

गुरु ने कहा 

" बिना मेरी आज्ञा के गायों का दूध पीना तो बिलकुल भी उचित नहीं हैं... " 

फिर कुछ दिनों के बाद उसे वैसे हीं स्वस्थ देखकर गुरु ने फिर पुछा 

"अब तुम क्या खाते हो !!! " 

उपमन्यु ने कहा 

" मैं अब जब ये बछड़े माँ का दूध पीते-पीते जो फेन उगल देतें हैं,  मैं वो पी जाता हूँ ..."

"राम राम !!!!"

"ये बछड़े तो तुम पर तरस खा कर ज्यादा हीं फेन उगल देतें होंगे तुमने तो अब बछड़ों के जीविका में हीं अड़चन डाल दी है... " 

अब खाने पीने के सारे रास्ते बंद हो जाने के बाद एक दिन 
भूख से व्याकुल हो कर उपमन्यु ने आक  के पत्ते खा लिए, जिससे वो अँधा हो गया और भटकते भटकते एक सूखे कुँए में जा गिरा .

जब बहुत शाम तक उपमन्यु गाय चरा कर नहीं लौटा तो गुरु ने बाकी शिष्यों से पुछा 

 उपमन्यु कहाँ है!!!

शिष्यों ने कहा 

"वो तो गायों को लेकर लौटा हीं नहीं हैं ।।।"

तब गुरु जी ने कहा 

"मैंने उसके खाने पीने के सारे उपाय रोक दिए हैं और लगता है वो इससे नाराज़ होकर कहीं चला गया है... चलो!!  उसे ढूंढें !!"

वो जंगल में अपने शिष्यों के साथ उसे ढूँढने निकलें.. 

उन्होंने जोर जोर से आवाज़ लगाई...


"बेटा उपमन्यु!! तुम कहाँ हो बेटा!!!  आवाज़ दो तुम कहाँ हों!!!! "

उपमन्यु ने गुरु की आवाज़ सुनी और कहा 

"गुरूजी मैं  यहाँ हूँ... इस कुँए के अन्दर... " 

उन्होंने पुछा 

"बेटा तुम कुँए में कैसे गिर पड़े ..."

उसने कहा

"भूख से व्याकुल हो कर मैंने आक के पत्ते खा लिए और  इससे मैं अँधा हो गया और भटकता हुआ इस कुँए में गिर पड़ा ... "

गुरु ने कहा 

"ओह यह तो  बहुत बुरा हुआ ... अब तुम देवताओं के चिकित्सक अश्विनीकुमार का आह्वान करो वही तुम्हारी आँखें ठीक करेंगे ... "

उपमन्यु ने अश्विनीकुमार का आह्वाहन किया. वो आयें और उन्होंने उसे एक पुआ खाने को दिया और कहा 

"तुम  इस पुए को खाओ इससे तुम्हारी आँखें ठीक हो जायेगी ..."

उपमन्यु ने कहा 

 "मैं बिना गुरु को निवेदित किये यह पुआ नहीं खा सकता।।। ... " 


अश्विनीकुमार  देवताओं ने कहा

"पहले जब तुम्हारे गुरु ने हमारी स्तुति  की थी और तब ये पुआ जब हमने उन्हें दिया था तब वो इसे बिना अपने गुरु को निवेदित कियें हीं खा लिए थे अतः तुम भी खा लो ।।। "

उपमन्यु ने फिर भी बिना गुरु को निवेदित किये  पुआ खाने से इनकार  कर दिया.

इससे अश्विनीकुमार  बड़े प्रसन्न हुए  और कहा

 "तुम्हारी आँखें ठीक हो जायेंगी और तुम्हारे दांत भी सोने के हो जायेंगे..."*

ठीक  होकर उपमन्यु अपने गुरु के पास पंहुचा और उन्हें सारी बात बतायी।।। गुरु बहुत खुश हुए और कहा....

"वाह!!  तुम्हारी गुरुभक्ति से मैं बड़ा प्रसन्न हुआ.  तुम्हे भी सारे वेद और शास्त्रों का ज्ञान बिना पढ़े हीं स्वभाववश हो जाएगा !!  अब तुम जा सकते हो... "


और  तीसरा शिष्य था वेद और इसी की कहानी में आता है महाभारत का पहला नेगेटिव करेक्टर या बोले तो  पहला विलन .... तक्षक नाग !!

क्या  नाम सुना है आपने पहले तक्षक नाग का :)* 














कुतिया* का श्राप!! Episode 2

तो शरुआत होती है सर्पयज्ञ की कहानी से. आप ध्यान दे ये कहानी flashback में चल रही है.

तो उग्रश्रवा ऋषि जी ने आगे बोलना शुरू किया....

एक बार जनमेजय...

( जो नहीं जानते हैं मैं बता दूँ की ये राजा जनमेजय  प्रशिद्ध पांडव अर्जुन  के पोते हैं।  उनके पिता का नाम परीक्षित था जो की अभिमन्यु के पुत्र थे, परीक्षित मृत पैदा हुए थे क्योंकि अश्वथामा ने अपना ब्रह्माश्त्र उत्तरा, जो की अभिमन्यु की बीवी थी, के गर्भ पे छोड़ दिया था. उन्हें कृष्ण ने जीवित किया था )*...

तो राजा जनमेजय एक बार  अपने भाइयों  के साथ कुरुक्षेत्र में यज्ञ कर रहे थें उस वक़्त वहां पे एक कुत्ते का बच्चा आया जिसे जनमेजय के भाइयों ने पीट दिया.

 वो पिल्ला रोता रोता अपनी माँ के पास पहुँचा। रोते चिल्लाते उस पिल्ले से उसकी माँ ने पुछा

 " बेटा तुझे किसने मारा है और तू क्यों रोता है..."


पिल्ले ने कहा

" मुझे जनमेजय के भाइयों ने मारा है...."

कुतिया बोली

 " जरूर तुमने उनका कुछ न कुछ अपराध किया होगा"

पिल्ले ने कहा

 " नहीं माँ!!  ना तो मैंने यज्ञ के हविष्य की और देखा और न  हीं किसी वस्तु को चाटा है.. मैंने कोई अपराध नहीं किया है "

यह सुन कर कुतिया यज्ञस्थल पे पंहुची और उसने जनमेजय के भाइयों को* पुछा

 "मेरे बेटे ने न तो किसी वस्तु की और देखा और न हीं किसी चीज़ को चाटा है..... उसने कोई अपराध नहीं किया उसके बावजूद तुमलोगों ने उसे क्यों मारा ?? "

वो कोई जवाब नहीं दे पाये।

तब कुतिया ने जिसका नाम सरमा* था कहा

 "तुमलोगों ने बिना किसी अपराध के मेरे पुत्र को मारा है इसलिए अब तुमलोगों पे कोई भारी संकट आएगा …"


 कुतिया का श्राप सुन कर राजा जनमेजय और उनके भाई डर गए और वो श्राप के  अनिष्ट को टालने के लिए किसी योग्य पुरोहित की तलाश में लग गये.

एक दिन जंगल में शिकार खेलते खेलते राजा जनमेजय श्रुतश्रवा जी के आश्रम में पहुंचे।

  उन्हें श्रुतश्रवा जी के पुत्र सोमश्रवा जी  बड़े अच्छे लगें और उन्होंने श्रुतश्रवा ऋषि से निवेदन किया वो उन्हें अपने पुत्र  सोमश्रवा जी को अपना पुरोहित बनाने की आज्ञा दे .

जनमेजय जी ने श्रुतश्रवा जी से कहा 

" ऋषि!! आपके पुत्र मेरे पुरोहित बने !!!"

श्रुतश्रवा जी ने कहा कहा 

" मेरा पुत्र बड़ा तपस्वी है और स्वाध्यायसमपन्न है .. यह सारे अनिष्टों को शान्त कर सकता है.... सिर्फ महादेव जी का श्राप मिटाने में ये असमर्थ है!!!  परन्तु याद रखो कि इसका एक गुप्त व्रत है की यदि कोई ब्राह्मण इससे कोई चीज़ मांगेगा तो वो उसे मना नहीं कर सकेगा।  यदि तुम ऐसा कर* सको तो इसे अपने साथ ले जाओ...  "

जनमेजय जी बड़ी इज़्ज़त के साथ सोमश्रवा जी को अपने साथ ले आएं और अपने भाइयों से कहा

 "देखो!!  इन्हे मैंने अपना पुरोहित बनाया है और अब तुमलोग भी बिना विचार* के हीं इनकी आज्ञा का पालन करना ...."

और इसके बाद कहते हैं की उन्होंने  तक्षशिला पे चढ़ाई की और उसे जीत लिया....  


महाभारत Episode 1

तो आरम्भ  करता हूँ एकदम शुरुआत से।।

लोमहर्षण ऋषि के पुत्र उग्रश्रवा जी, जो की सूतवंश के श्रेष्ठ पौराणिक* थे, उस वक़्त नैमिषारण्य में आते हैं, जब नैमिषारण्य के कुलपति शौनक जी वहां बारह वर्षों का  सत्संग कर रहें हैं।।

उनको देखते हीं वहां मौजूद सारे ऋषिगण उनके आस-पास आकर उन्हें घेर लेते हैं।  

वो उनसे उनकी चित्र- विचित्र कथाओं को सुनने के लिए उत्सुक थे।और उचित आदर सत्कार करने के बाद वो उनसे पूछतें हैं...

"बताएं आप अभी कहाँ से आ रहें हैं और आपने अब तक का अपना समय कहाँ बिताया है...."*

उग्रश्रवा ऋषि जी कहते हैं ..... 

"मैं राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ से आ रहा हूँ  और वहां मैंने श्री वैशम्पायन जी के मुख से  श्री कृष्णद्वैपायन जी के द्वारा निर्मित * महाभारत ग्रन्थ की अनेकों पवित्र और विचित्र कथाएं सुनी..."

ये बात सुनते हीं  वहां मौजूद सारे ऋषिगण* उनसे उन कथाओं को सुनाने की प्रार्थना करने लगते हैं....

 उग्रश्रवा जी कहते हैं.....
वेद व्यास जी ने जब वेदों का विभाजन करके मन हीं मन में महाभारत की रचना कर ली तो उन्हें चिंता हुई

अब जब मैंने एक ऐसे ग्रन्थ की रचना कर ली है तो इसे अपने  शिष्यों को पढ़ाऊं कैसे!!! 

तो व्यास जी के उत्तम ख़याल को सुन कर स्वयं ब्रह्मा जी उनके पास आये.

 ब्रह्मा जी को देख कर बड़े प्रसन्नभाव से, वहां मौजूद और  ऋषिगणों के साथ, उन्होंने हाँथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया, और कहा

" हे भगवान मैंने एक बड़े उत्तम काव्य की रचना की है जिसमे वैदिक और लौकिक सभी विषय हैं. इसमें वेद उपनिषद के साथ इतिहास, भूगोल, पुराण भूतादि के अलावा युद्ध कौशल, विविध भाषा, विविध जाती और उनके लोक व्यवहार के साथ देवताओं, मनुष्यों की उतपत्ति आदि सभी विषयों का वर्णन है मगर पृथवी में कोई इसे लिखने वाला नहीं मिलता…" 

ब्रह्मा जी ने उन्हें गणेश जी का आह्वान करने के लिए कहा.

 उन्होंने गणेश जी की स्तुति की और गणेश जी प्रकट हुए.

वेद व्यास जी ने कहा 

" भगवान मैंने मन हीं मन में महाभारत की रचना कर ली है!!  मैं बोलता जाता हूँ आप इसे लिख लीजिए. ..."


गणेश जी ने कहा

"ठीक है मगर अगर मेरी कलम एक छण के लिए भी रुकी तो मैं लिखना छोड़ दूंगा.."

व्यास जी ने कहा

 "ठीक है मगर बिना समझे मत लिखियगा .."

और इसी सम्बन्ध में व्यास जी ने प्रतिज्ञापूर्वक कहा है कि


 " एक लाख श्लोकों में आठ हज़ार आठ सौ श्लोक ऐसे हैं जिनका मतलब मैं जानता हूँ,  शुकदेव जी* जानते हैं , संजय जानते हैं की नहीं इसका निश्चय नहीं है…"

और इस तरह जब तक गणेश जी उन श्लोकों का  अर्थ  निकालते तब तक व्यास जी और अनेकों श्लोकों की रचना कर लेते और इस तरह से ये गाडी चल पड़ी....

क्रिकेट मैच "एक लघु कथा"